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दोषों को उन्मूलन करने की इच्छा हो वहां मैत्री का जन्म होता
'मा कार्षीत् कोऽपि पापानि ।' ऐसी मैत्री न हो वहां धर्म नहीं है। हरिभद्रसूरिजी का वचन प्रामाणिक माना जाता है, जिसे समस्त गच्छों के मुनि स्वीकार करते हैं । वे कहते हैं - चाहे जितने धर्मानुष्ठान करो, परन्तु मैत्री न हो तो सब शून्य है। धर्म वह कहलाता है जहां भगवान की आज्ञा हो तथा मैत्री आदि भावना हो । अरबों का दान दो, ब्रह्मचर्य का पालन करो परन्तु मैत्री नहीं हो तो धर्म नहीं है । ___आत्मा को परमात्मा, जीव को शिव, नर को नारायण, खुद को खुदा बनाने वाला मैत्रीयुक्त धर्म है । तालियों से मैत्री नहीं आती ।
सिद्धाचल कहता है - सीधा चल ! अब तक हम टेढ़े ही चले हैं । आत्मा का स्वभाव सीधा चलने का है, परन्तु मोह हो तब सीधा चला नहीं जाता । इसीलिए कल्याण नहीं हो रहा ।
मेरु पर्वत छोटा पड़े, उतने रजोहरण किये, फिर भी कल्याण नहीं हुआ क्योंकि हम उल्टे ही चले ।
मा + उह = मोह । जहां सार-असार का विचार न हो वह मोह है।
ऐसी उत्तम भूमि में, आनन्ददायी वातावरण में आकर आत्मा को सरल बनायें । चार महिनों में इतनी प्राप्ति होगी कि जिसकी कल्पना भी नहीं होगी ।
किसी को बताने के लिए नहीं, परन्तु आत्मा के लिए करना
पूज्य आचार्यश्री विजयसिंहसेनसूरिजी :
'मा कार्षीत् कोऽपि पापानि ।' * कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरिजी योगशास्त्र में मैत्री भावना बताते हैं । मण्डप में दृश्य देखकर ही लगे कि मैत्री हृदय में ओतप्रोत हो गई है। (कहे कलापूर्णसूरि - ३ womosomwwwwwwwww ३९)