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- * पूज्य आचार्य जगवल्लभसूरिजी के शिष्य पू. मुनिश्री दर्शनवल्लभविजयजी :
आग लगी आकाश में, जर-जर पड़े अंगार ।
यह शासन न होता अगर, जल मरता संसार ॥ सागर को चम्मच से उलीच नहीं सकते । पू. सागरजी के गुणानुवाद करने वाला मैं कौन ? मैंने उन्हें न देखे हैं, न जाने हैं, परन्तु उनकी कृतियों ने उन्हें अमर बनाया है । वे भले ही विद्यमान नहीं है, परन्तु उनकी प्रतिकृति एवं कृति विद्यमान हैं ।
पूज्यश्री आगमों की सुन्दर परम्परा चलाने वाले थे । जिनके बिना जीने का मालूम न पड़े वे आगम हैं ।
प्रतिकृति कदाचित् विलीन हो जायेंगी, परन्तु आगम मन्दिर रूपी यह कृति कहां जायेगी ?
उनके गुणगान करके उठ जायें, उसकी अपेक्षा एक-आध गुण ग्रहण करें । हम आगमों का अध्ययन करें, आप श्रवण करें, यह सच्ची भावांजलि होगी ।
* पू. बालमुनिश्री आगमसागरजी : सब मनुष्य जानते हैं कि यह तस्वीर किसकी है ? (थोडा सा बोलकर अटक गये, तो भी लोग प्रसन्न हो गये) * पूज्य आचार्य यशोविजयसूरिजी :
पूज्य सागरजी ज्ञान के सागर थे ही, ध्यान के भी सागर थे । दर्शन करने का लाभ तो मुझे नहीं मिला, परन्तु तस्वीर में ध्यानस्थ मुद्रा देखकर नत मस्तक हो गया । उनमें स्वरूप रमणता की अनुभूति दिखाई दी । दशवैकालिक का एक श्लोक है :
णाणमेगग्ग-चित्तो अ ठिओ अ ठावइ परं ।
सुयाणि अहिज्जित्ता, रओ सुअ-समाहिए ॥ ज्ञान को स्वरूप-रमणता में बदलने का कार्य उन्हों ने करके बताया । 'टीम-वर्क' के लिए विराट कार्य कहा जाता है, वैसा कार्य अकेले हाथ से वे कैसे कर सके होंगे ?
प्रतीत होता है कि ध्यान की पृष्ठभूमि पर प्रभु के ज्ञान को अवतरित किया था । ध्यान के बिना प्रभु का ज्ञान संभाला नहीं जा सकता । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 500mmmmmmmm60500000 १०१)