________________
* गुणों से आत्मा तृप्त होती है । पुद्गलों से अनेक बार देह तृप्त हुई, परन्तु आत्मा अनादिकाल से अतृप्त है, इसका कभी विचार आया ?
एक क्षमा गुण आ जाये तो कितनी तृप्ति होगी ? आत्मा तो तृप्त होती ही है, देह भी स्वस्थ होती है। क्रोध, आवेश, अधीरता इत्यादि से देह भी रोग-ग्रस्त बन जाती है, यह अब सिद्ध हो चुका
है ।
सदा प्रसन्न-चित्त एवं क्षमा से युक्त मुनि इसीलिए नीरोगी होता है।
'अलौत्यमारोग्यमनिष्ठुरत्वम् ।' योग प्रवृत्ति के प्रथम चिन्हों में आरोग्य भी है । समस्त जीवों को करुणामय दृष्टि से देखनेवाले साधु के चित्त में सदा समता रहती है ।
हरी वनस्पति आदि पर दृष्टि डालते समय भी साधु की यही दृष्टि होती है।
भगवान में तो ऐसे अनन्त-अनन्त गुण हैं। केवली के अतिरिक्त उन गुणों को कौन जान सकता है? कौन उनका वर्णन कर सकता है ?
इन गुणों को जान लेने के पश्चात् क्या उन्हें प्राप्त करने का लोभ नहीं जगेगा ? यहां लोभ जगना पाप नहीं है ।
एकाध गुण से हम कितने गर्जते हैं ? गुण आने से पूर्व अहंकार आ जाता है और गुण दोषों में परिवर्तित हो जाते हैं, ऐसे हैं हम ।
दर्शन मोहनीय के क्षयोपशम के बिना गुण आयें तो ऐसी ही दशा होती है । दर्शन मोहनीय आदि सात (अनन्तानुबंधी सप्तक) प्रकृति अत्यन्त ही खतरनाक है ।
* ज्ञान-प्राप्ति भिन्न बात है, उसे क्रियान्वित करना भिन्न बात है । योग हमें ज्ञान को क्रियान्वित करने की बात कहता है, प्रदर्शक नहीं प्रवर्तक ज्ञान प्राप्त करने का कहता है । प्रवर्तक ज्ञान आते ही जीवन में परिवर्तन प्रारम्भ हो जाता है । यही इसका चिन्ह है।
... कोई अपूर्व ज्ञान प्राप्त होते ही बैठे न रहें । उसे जीवन में (कहे कलापूर्णसूरि - ३00000000 0 00000 १८७)