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सद्गुरु के द्वारा ही परम गुरु मिलते हैं ।
सदगुरु के चरणों में सिर झुकाने के पश्चात् कोई इच्छा नहीं रहती ।
'सद्गुरु-चरण बिना मोहे कछु नहीं भावे ।'
'भवसागर अब सूख गया है ।
फिकर नहीं मोहे तरनन की । मोहे लागी लगन गुरु चरनन की ।'
-- मीरा सागर सूख जाये फिर तैरने की आवश्यकता क्या ?
एक साधक को सद्गुरु की तलप लगी; वह सद्गुरु को ढूंढने के लिए निकल पड़ा ।
जंगल में मिले गुरु को साधक ने पूछा, 'मुझे सद्गुरु कहां मिलेंगे ।'
गुरु ने कहा, 'गुरु प्रत्येक के लिए निश्चित हैं, योग्य समय पर मिलते हैं । वे जंगल में अमुक वृक्ष की डाली के नीचे तुझे मिलेंगे।'
यह सुनते ही वह दौड़ा । पांच वर्षों तक जंगल में भटका, परन्तु कहीं पता नहीं लगा । गुरु हैं तो वृक्ष नहीं है, वृक्ष हैं तो गुरु नहीं हैं । कही मेरी समझ में भूल तो नहीं है। फिर याद आया - ये ही गुरु वृक्ष के नीचे थे । पुनः पांच वर्षों के पश्चात् वे ही गुरु वृक्ष के नीचे मिले । उस समय भी वे उसी वृक्ष के नीचे खड़े थे।
शिष्य ने अपनी वेदना व्यक्त की -
'मुझे तो पता नहीं था गुरु ! आपको तो पता था न ? तनिक कहना तो था । पांच-पांच वर्षों तक मेरी पांवो की कढ़ी कर डाली ।'
'मुझे पांच वर्षों तक तेरे लिए एक स्थान पर बैठा रहना पड़ा उसका क्या ? उस समय तेरे शिष्यत्व की परिपक्वता नहीं थी। उसके बिना सद्गुरु का योग नहीं हो सकता ।' गुरु ने कहा ।
सद्गुरु की प्राप्ति महान् घटना है । अरणिक मुनि को सद्गुरु मिले थे । दोपहर में पांव जले । उनका पतन हुआ । यह जानते (१९८ on woman woom a कहे कलापूर्णसूरि - ३)