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जितने आचार्य मिले, उन सबकी हमें यही सलाह थी कि आगमों को कदापि भूलें नहीं ।
आवश्यक नियुक्ति, अनुयोग द्वार, नन्दी ये आगमों की चाबियां हैं । वे हाथों में आ जायें तो समस्त आगमों के ताले खुल जायेंगे । अखबार पढ़कर व्याख्यानकार बनने के भ्रम में न रहें । शास्त्रीय पदार्थ चाहिये ।
पूज्य पं. भद्रंकरविजयजी म. का मनोरथ था कि एकत्रित संघ में मैत्री आदि का वातावरण कैसा जमे ?
इस समय ये सब बातें युवान मुनि एवं बाल मुनि सुनते हैं । भविष्य में ये भी बड़े होंगे न ? वे ऐसा वातावरण सृजन करने का प्रयत्न करेंगे ।
संघ की भक्ति करने से क्या फल मिलता है ?
सिंदूर-प्रकर-प्रणेता कहते हैं कि निष्काम भक्ति करोगे तो तीर्थंकर पद इसका फल है ।
इससे बड़ी पदवी कौन सी है ? पू. धुरन्धरविजयजी म. : क्या सिद्धों की पदवी बड़ी नहीं है ?
पूज्यश्री : सिद्ध तो हैं ही, परन्तु तीर्थंकर बन कर सिद्ध क्यों न बनें ? चक्रवर्ती - देवेन्द्र के फल तो आनुषंगिक फल हैं । मुख्य फल तो तीर्थंकर पद एवं सिद्ध पद हैं ।
हम भी श्रावक-श्राविकाओं को स्थिरीकरण, उपबृंहणा आदि के द्वारा संघ-भक्ति कर सकते हैं ।
आठ दर्शनाचारों में प्रथम चार स्व के लिए हैं । अन्य चार संघ के लिए हैं ।
इस पुस्तक में पूज्य आचार्य भगवन् के उद्गारों व की आनन्दानुभूति हुई और जीवों के प्रति मैत्री-भाव एवं करुणा से ओतप्रोत सुवाक्य देखने को मिले ।
__ - साध्वी पद्मदर्शनाश्रीश
कहे कलापूर्णसूरि - ३Wommonsomnoon २३१)