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एक बार ससुर मिश्रीमलजी के पिताजी ने पूज्य लब्धिसूरिजी को रात्रि में पूछा था कि इस काल में उत्कृष्ट संयमी कौन है ?
उस समय गुण-रागी पू. लब्धिसूरिजी ने पूज्य कनकसूरिजी का नाम दिया था । उस समय कमलविजयजी म. भी वहां थे और उन्हों ने मन में गांठ बांध ली कि दीक्षा लेनी तो इन्हीं महात्मा के पास लेनी ।
दीक्षा ग्रहण करने के बाद लगा कि सचमुच भगवान ने मुझे अत्यन्त ही उचित एवं योग्य स्थान पर लगाया है ।
पूज्यश्री के जितने गुण-गान करें उतने कम हैं ।
उन्हों ने ही हमें जामनगर अध्ययन करने के लिए भेजा था । दो वर्षों के बाद कहलवाया - या तो पाटण जाओ, या अहमदाबाद जाओ, जामनगर छोड़ दो, क्योंकि दो वर्ष हो गये हैं । अधिक समय एक स्थान पर नहीं रहना चाहिये ।
हमें विचार आया कि अब पूज्यश्री के पास ही जाना है । हम पूज्यश्री के चरणों में भचाऊ पहुंचे ।
उस समय पूज्यश्री स्वयं आवश्यक नियुक्ति, आरम्भ सिद्धि आदि पढ़ाते थे तथा पं. अमूलखजी को भी पढ़ाने के लिए रखा ।
परन्तु प्रकृति को मंजूर हो वही होता है ।
हमें गांधीधाम चातुर्मासार्थ जाना पड़ा और डेढ़ महिने में तो दादा परलोक सिधार गये ।
हमें वे सदा के लिए छोड़ गये, परन्तु भक्त को कदापि गुरु का विरह होता ही नहीं है ।
उस समय पू.पं. भद्रंकरविजयजी (वर्तमान में आचार्य) चातुर्मास के लिए आये, अतः हमें अलग होना पड़ा । उस समय उत्तरदायित्व कम थे, अतः अध्ययन आदि अच्छी तरह होता था । जिनके ऊपर ऐसी जवाबदारी नहीं है, उन्हें खास सूचना है कि स्वर्ण अवसर का सदुपयोग कर लो ।
पूज्यश्री ने कालधर्म से २-४ दिन पूर्व ही स्वयं लोच कर लिया था ।
अन्तिम दिन, अन्तिम समय में पूज्यश्री ने 'पंचसूत्र' श्रवण करने की इच्छा व्यक्त की थी। तब से ही मेरा मन 'पंचसूत्र' कहे कलापूर्णसूरि - ३ 6600mwwwwwwwwwwww.00 २४५)