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बल हो, उतना यह नमस्कार शक्तिशाली बनता है । यह नमस्कार आपको 'परम' के साथ जोड़ देता है । जिसे आप नमन करते हैं, उसके साथ आप नमस्कार के माध्यम से ही जुड़ सकते हैं ।
पूज्य कीर्तिसेनसूरिजी : बोधि एवं सम्यक्त्व में क्या अन्तर है ? पूज्यश्री : बोंधि एवं सम्यक्त्व में वैसे कोई अन्तर नहीं है, फिर भी वैसे तनिक अन्तर भी हैं ।
पूज्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी : और वरबोधि ?
पूज्यश्री : वरबोधि तो भगवान के पास ही होता है, अन्य किसी को आशा रखनी ही नहीं है ।
पूज्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी : हमें भगवान बनना है न ? पूज्यश्री : मनोरथ किसको नहीं होता ? परन्तु बनता कौन
है ?
भगवान का भक्त कदापि भगवान बनने का कोड़ नहीं करता । वह कोड़ करे तो भक्त नहीं बन सकता, परन्तु आप भले ही निःस्पृह रहें, भगवान आपको भगवान बनायेंगे ही । सांख्य-दर्शन आत्म-कर्तृत्व नहीं मानता ।
जैन दर्शन अन्य दर्शनों की तरह जगत्कर्तृत्व नहीं स्वीकार करता, परन्तु सम्यग्दर्शन आदि गुणों में निमित्त रूप से भगवान कर्त्ता है, यह जैन दर्शन मानता है । साधना के लिए यह मानना आवश्यक है । 'मैं स्वयं पढ़ा हूं' ऐसा विद्यार्थी कदापि नहीं कहता । गुरु ने पढ़ाया है, ऐसा ही कहेगा । इसी प्रकार से भक्त भी यही कहेगा कि भगवान ने ही गुण प्रदान किये हैं ।
साधना के लिए यह दृष्टिकोण अत्यन्त ही आवश्यक है । यह दृष्टिकोण नहीं रख कर अनेक व्यक्ति भूले पड़ गये हैं । आत्मा सर्वथा अकर्त्ता है, यह सांख्य दर्शन मानता है । जैनदर्शन आत्मा का कर्तृत्व स्वीकार करता है । कर्म स्वयं आकर नहीं चिपकते । आत्मा शुभाशुभ परिणाम करती है, तदनुसार कर्म चिपकते रहते हैं । अतः जैन दर्शन मानता है कि आत्मा कर्म का कर्त्ता है ।
जैन दर्शन भले सर्वथा जगत्कर्तृत्व स्वीकार नहीं करता, परन्तु इस प्रकार कथंचित् कर्तृत्व स्वीकार करता है ।
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wwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि- ३