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हैं । इनकी भयंकरता नहीं प्रतीत हुई, इसीलिए उन्हें निकालने के लिए प्रयत्न नहीं करते । भूत, राक्षस भयंकर लगते हैं, उनसे आप डरते हैं; परन्तु क्या कषायों से डरते हैं ?
तीर्थ में प्रवृत्ति नहीं होती, क्योंकि संसार की भयंकरता अभी तक समझ में नहीं आई, अभी तक कषायों से भय नहीं लगता । आप लिख कर रख लें कि कषायों को निकाले बिना कर्म कदापि जाने वाले नहीं हैं ।
विषय - कषाय बुरे लगे, इसीलिए आप संसार में से निकले हैं न ? परन्तु अब ये विषय कषायों की भयंकरता भूल मत जाना । इस संसार - सागर में मोह का आवर्त्त है ।
नाविक भी कई बार इसमें फस जाता है । उसमें यदि जहाज फंस जाये तो चूर-चूर हो जायेगा ।
कामराग, स्नेहराग, दृष्टिराग, चार कषाय, नौ नोकषाय, दर्शन मोहनीय आदि मोह के ही प्रकार हैं ।
मोह के कारण कर्म - बन्धन होता है । कर्मों से दुःख आते हैं । अतः फिर लिखा है
दुःखों के समूह रूप दुष्ट जलचरों से भरा हुआ यह संसारसागर है ।
कतिपय मगर ( घडियाल ) या मछलियां ऐसी होती हैं कि पूरे के पूरे मनुष्य को ही खा जाते हैं । अरे, वे जहाज को भी उल्टा देते हैं, वैसी भी मत्स्य (शार्क मछली आदि) होती हैं । दुःखों से तो फिर भी बचा जा सकता है, परन्तु दोष तो उनसे भी खतरनाक हैं । राग-द्वेष के दोषों से भले भले भ्रान्त हो जाते हैं । इसलिए कहा है
राग-द्वेष की वायु से यह
रहा हैं
कि
संसार - सागर सतत खलबल हो
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यह संसार-सागर अकेले से नहीं तैरा जा सकता । कर्णधर के रूप में देव - गुरु चाहिये ही । राग-द्वेष, मोह के तूफान आयेंगे ही, परन्तु उस समय भयभीत होकर हमसे साधना छोड़ी नहीं जा सकती । अतः भगवान को शरण लें ।
संयोग-वियोग रूपी लहरें यहां उठती ही रहती हैं ।
( कहे कलापूर्णसूरि- ३ wwwww
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