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मालशीभाई : सब तो नहीं दे देते हैं ।
पूज्यश्री : भगवान तो इनता देते हैं, आपका अपना ही स्वरूप दे देते हैं, ताकि आपकी अनादि की दरिद्रता (निर्धनता) मिट जाये ।
तीर्थंकरो की परार्थरसिकता उत्कृष्ट होती है ।
गणधरों, युगप्रधानों, आचार्यों आदि की परार्थरसिकता क्रमशः थोड़ी-थोड़ी होती है ।
कतिपय संसार-रसिक जीव परोपकारी होने को दिखावा करते हैं सही, परन्तु परोपकार करते हैं मात्र स्वार्थ के लिए ।
कई व्यक्ति आचार्यों के भक्त होने का स्वांग रचकर लोगों से धन लेकर हजम कर जाने वाले भी होते हैं । आप कई बार सुनते हैं न ?
प्रतिज्ञा लें कि आज किसी का कार्य किये बिना खाना नहीं है, तो ही यह सुना हुआ सार्थक गिना जायेगा ।
कान्तिभाई : नरक-निगोद में क्या परोपकार करें ?
पूज्यश्री : उनके भावों को देखो तो पता लगे, कोई सामग्री मिले तो परार्थता चमके । नरक में रहे श्रेणिक इस समय विचार करते हैं कि बिचारे ये जीव नरक आदि में से कब छूटेंगे ?
तीर्थंकर तो क्या ? चतुर्विध संघ के प्रत्येक सदस्य की यह भावना होती है कि 'एकेन्द्रियाद्या अपि हन्त जीवाः' ये बिचारे एकेन्द्रिय आदि जीव वहां से बाहर निकलकर कब पंचेन्द्रिय आदि प्राप्त करके सद्धर्म की प्राप्ति करेंगे ?
यह सब समझने के लिए सूक्ष्म बुद्धि होनी चाहिये ।
पूज्य गुरुदेव की वाणी रूपी सूर्य की किरणें इस पुस्तक के माध्यम से मानो मेरे जीवन में विद्यमान घोर अज्ञानरूपी अन्धकार को नष्ट करने में सहायक हो रही हैं ।
- साध्वी जिनेशाश्री
कहे कलापूर्णसूरि - ३Booooooooooooooooon २८९)