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सागर में लहरें इतनी ऊंची उछलती हैं कि जहाज भी टूट जाये ।
कतिपय संयोग जीवन को ऊपर उठाने वाले होते हैं और कितने ही संयोग जीवन को बर्बाद करने वाले भी होते हैं, परन्तु एक बात याद रखें कि संयोग अच्छा हो कि बुरा, वियोग तो होगा ही । संयोग-वियोग रहीत एकमात्र स्थान है - मोक्ष । उसके लिए तो अपना यह समस्त प्रयत्न है ।
कषायों के उबाल के समय, संयोग-वियोग के समय हमारी आत्मा अटल रहे, स्वस्थ रहे; उसके लिए यह सब सिखाया जाता है।
संयोग-वियोग न आयें, कषायों के कारण न आयें, परिषह या उपसर्ग न आयें, ऐसा सम्भव नहीं है, परन्तु उस समय हमारा मन स्वस्थ रहे यह सम्भव हैं। भगवान पर भी परिषह-उपसर्ग आते हैं तो हम कौन हैं ? इसी लिए तो विघ्नजय नामक एक आशय खास हरिभद्रसूरिजी ने बताया है।
कुछ विघ्न ऐसे होते हैं कि जो अपने शुभ प्रणिधान को तोड़ डालते हैं । इसीलिए इससे सावधान होना है। परिषह-जय या विघ्न-जय दोनों पर्यायवाची शब्द हैं । परिषहों पर विजयी हुए बिना कार्य सिद्ध नहीं होता । अब भी संसार की भयंकरता देखें ।
* आशाओं का ज्वार यहां आता रहता है ।
अपनी आशाएं, इच्छाएं इतनी खतरनाक होती हैं कि जो अपनी ही साधना बिगाड़ देती हैं । दूसरी तरफ न देख कर हमारे भीतर ऐसी स्पृहाऐं, महत्त्वाकांक्षाएं हों तो उन्हें छोड़ दें । यशोविजयजी महाराज की शिक्षा :
'पर' की स्पृहा महा दुःख है । निःस्पृहता महा सुख है । "पर की आशा, सदा निराशा, ये है जगजन पाशा ।'
ऐसे मनोरथ ही क्यों करें ? विषय-कषाय सम्बन्धी इच्छाएँ ही क्यों करें जिससे दुःखी होना पड़े ।
ऐसा यह संसार-सागर अत्यन्त ही विशाल है, विस्तृत है ।
साधना से संसार अल्प किया जा सकता है । इसीलिए हमने संयम-जीवन में प्रवेश किया है ।
(२७२ommonomooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)