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संघ के किसी भी सदस्य का भी हो सकता है । यह भी संघ की भक्ति है । उन्हें आप गुणों के मार्ग में आगे बढाएं यह भी संघ-भक्ति है । यदि गुणवान की प्रशंसा नहीं करो तो अतिचार लगते हैं ।
'संघमांही गुणवंततणी अनुपद्व्हणा कीधी ।' संभवनाथ भगवान पूर्व के तीसरे भव में अकाल के समय में श्री संघ की भक्ति करके ही तीर्थंकर बने थे । यह संघ-भक्ति तीर्थंकर की माता है । .
* दीन-दुःखियों का उद्धार आदि नहीं किया जाये तो दोष लगता है, लोगों में भी निन्दा होती है । वे उत्सव करते हैं परन्तु गरीबों की परवाह नहीं है । इसी लिए वस्तुपाल ऐसी दानशालाओं का निर्माण कराते थे जिनमें जैन-अजैन सभी भोजन करते थे ।
मद्रास की प्रतिष्ठा के समय अजैनों को भी बादाम की कतली आदि दी गई थी । उन्हें लगा कि जैनों ने पहली बार हमें इस प्रकार याद किया ।
__ संघ में कई बार सम्पूर्ण गांव के लोगों को निमन्त्रण दिया जाता था । उनका अन्न पेट में जाने पर स्वाभाविक तौर से ही वे जैन धर्म के प्रति अनुरागी बनते थे ।
अपूर्णता की दृष्टि से यदि हम देखेंगे तो कमियां (त्रुटियां) ही प्रतीत होंगी, परन्तु विशाल दृष्टि से गुण ही दिखाई देंगे । मुझे तो इस संघ के गुण ही दिखाई देते हैं । यहां १६०० ठाणे हैं । किसी को वस्त्र, पात्र, वसति, अन्न आदि का कोई कष्ट हुआ ? श्रावकश्राविकाएं शायद वापिस गये होंगे, परन्तु क्या किसी साधु-साध्वी को वापिस जाना पड़ा ? क्या यह संघ का प्रभाव नहीं है ?
किसी पुण्योदय से यहां एकत्रित हुए हैं तो उत्तम कार्य हो सकेंगे।
मैत्री का ऐसा माहौल बना है, वह मात्र बोल कर नहीं, जीकर बतायेंगे तो उसका प्रतिबिम्ब सर्वत्र पड़ेगा ही ।
___ कदाचित् यह प्रयत्न सफल नहीं हो तो भी मनोरथ तो निष्फल नहीं ही जायेगा । भविष्य के लिए मैत्री का यह वातावरण बीज रूप बनेगा । (२६० Wwwwwwwwwwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि - ३)