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भी हाजिर हजूर हैं । देखो, राजतिलकसूरिजी तथा महोदयसूरिजी इन दोनों के नामों के पहले अक्षर मिलकर 'राम' होता है । ये दोनों एक ही वर्ष में दीक्षित हुए थे ।
पुण्य तब ही बढ़ता है जब समस्त मुनि भगवंतो को पूज्य भाव से देखे जायें, अपने से भी अधिक रूप सें देखे जायें । मुनि-वेष की अवगणना करने वालों को यह शासन नहीं मिलता ।
'यादृशस्तादृशो वापि, क्रियया हीनकोऽपि वा' चाहे जैसा क्रियाहीन संयमी भी यहां पूजनीय है । ऐसा विधान धनेश्वरसूरिजी ने शत्रुंजय माहात्म्य में किया है ।
नवकार गिनने वाले समस्त श्रावक भी संघ में ही गिने जाते
हैं ।
अपने आयोजन का फल यही है परस्पर प्रेम बढ़ता है । भोजन करने से प्रेम पक्का होता है । व्यवहार में भी यही है । इन हरखचन्दभाई ने जो भोजन करने का निमन्त्रण दिया है उसे स्वीकार करें । वल्लभदत्तविजयजी (फक्कड़ महाराज) कहते थे - संघ का निमन्त्रण कदापि ठुकराये नहीं । विहार हो तो उसे भी रद्द करें ।
पाठशाला का प्रभाव
परदेश की एक पाठशाला के बालक को पूछा, 'तू किस लिए पाठशाला में आता है ? उसने उत्तर
दिया कि धर्म सीखने के लिए आता हूं ।
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धर्म से क्या तात्पर्य हैं ?
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'पाप नहीं किये जाने चाहिये, पाप करें तो दुःख आते हैं, धर्म से सुख मिलता है ।'
सुनन्दाबहन वोरा
कहे कलापूर्णसूरि ३
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