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भुज चातुर्मास, वि.सं. २०४३
(१) अपुनर्बंधक
(२) सम्यक्त्वी
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चतुर्विध संघ स्वयं मुक्ति-मार्ग पर चलता है, अन्य को भी चलाता है, इस चतुर्विध संघ के दर्शन पुण्य की पराकाष्ठा कहलाती है 1 संसार में कितने पुद्गलावर्त गये ? अनन्त पुद्गलावर्त गये । अब भी कितने पुद्गलावर्त बाकी होंगे, यह भगवान जाने ।
कहे कलापूर्णसूरि ३
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१९-८-२०००, शनिवार भाद्र कृष्णा-४
यह तीर्थ हमें भूतकाल में भी अनन्त बार मिला होगा, परन्तु अपना उपादान कारण तैयार नहीं था । हमारे भीतर 'दुर्भव्य' बैठा था । आज भी हम कैसे कह सकते हैं कि दुर्भव्य नहीं बैठा । दुर्भव्य को कदापि भगवान की देशना अच्छी नहीं लगती ।
अपुनर्बंधक अर्थात् धर्म का आदि साधक, आदि धार्मिक, जो अब कदापि मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बांधने वाला नहीं हैं । साधक के चार विभाग हैं :
(३) देशविरत
(४) सर्वविरत
भूमिका देख कर ही देशना देने का विधान है
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