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प्रवचन फरमाते हुए पूज्यश्री
१८-८-२०००, शुक्रवार
भाद्र. कृष्णा -३
* यहां 'नमुत्थुणं' में नाम आदि चार में से भाव तीर्थंकर को नमस्कार किया है । 'लोगस्स' में नाम तीर्थंकर को, ‘अरिहंत चेइआणं' में स्थापना तीर्थंकर को और 'जे अ अइआ' में द्रव्य तीर्थंकर को नमस्कार किया है ।
समवसरण में नाम आदि चारों भगवान उपस्थित होते हैं ।
अपना आत्म-द्रव्य भगवन्मय बने वही द्रव्य तीर्थंकर गिने जाते हैं । यहां भूत-भावी पर्याय रूप द्रव्य नहीं लेना है । यद्यपि भूतभावी का कारण भी आत्म-द्रव्य ही बनेगा न ?
* ध्याता जिसे ध्येय रूप में रखे, वह उस रूप में बन जाता है । पुद्गल को ध्येय के रूप में रख कर चेतन ने बहुत मार खाई है। अब यदि बचना हो तो परमात्मा को ध्येय बनाओ।
परमात्मा में हम रंग नहीं लगाते, इसका अर्थ इतना ही है कि हम पुद्गल में रंग करते हैं ।
जीव-विचार आदि सबका अध्ययन करें, सबको समझें, परन्तु यदि 'स्व' में कुछ भी न घटित करें, सब अन्य में ही घटित करें । हम कोरे ही रहें, इसका अर्थ क्या ?
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कहे कलापूर्णसूरि - ३)