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रूपयों की बात नहीं है, उनकी निष्ठा देखो । संघ ऐसी भक्ति करता हो तो अपना कर्त्तव्य क्या है ? .
क्या आपके गुरु महाराज पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. याद आये बिना रहते हैं ? वे रात-दिन संघ की चिन्ता करते थे कि मेरा संघ टुकड़ों में विभाजित क्यों हो? एकता के प्रयत्न में सफलता नहीं मिलती तो भी तनिक भी हताश हुए बिना वे पुण्य बढ़ाने की ही बात करते थे ।
इस संघ की भक्ति वे द्रव्य से करते हैं, हमें भाव से करनी है । इसी लिए शास्त्रों का अध्ययन करना है। अतः चतुर्विध संघ की तरह द्वादशांगी भी तीर्थ है । द्वादशांगी का अध्ययन तीर्थ की ही भक्ति है । आप यदि अपना ज्ञान दूसरों को नहीं देते हैं तो अपराधी हैं ।
मैं यदि आपको कोई शास्त्र-पदार्थ नहीं दूं, आडी-टेढ़ी बातों में समय व्यतीत कर दूं तो अपराधी बनता हूं ।
संघ की भक्ति तीर्थंकर की भक्ति गिनी जायेगी। __ पंच परमेष्ठी स्वयं ही संघ रूप होने से भिन्न रूप से 'नमो तित्थस्स' कहने की नवकार में आवश्यकता नहीं पड़ी । अन्य प्रकार से कहूं तो नवकार में 'नमो तित्थस्स' का ही विस्तार है ।
* 'णमो सुअस्स' ऐसा भगवती के प्रारम्भ में आया है ।
‘णमो सुअस्स' में तीर्थ आ गया, क्योंकि श्रुत (द्वादशांगी) स्वयं तीर्थ है। इस तीर्थ की सेवा करने वाला तत्त्व प्राप्त करेगा ही । ___ 'तीरथ सेवे ते लहे, आनंदघन अवतार'
- पूज्य आनन्दघनजी पूज्य धुरन्धरविजयजी म. : अतः व्याख्यानकार बनना ही न ?
पूज्यश्री : व्याख्यानकार बनने का नहीं कहता, गीतार्थ बनें ।
पूज्य प्रेमसूरिजी म., पू. मुक्तिविजयजी म. एवं भानुविजयजी म. दोनों का व्याख्यान सुन कर कहते - इसमें क्या आया ? शास्त्रीय पदार्थ तो कुछ भी नहीं आया । पूज्य प्रेमसूरिजी महाराज नहीं होते तो क्या आप तैयार होते ? (२३० Ww
monommmm कहे कलापूर्णसूरि - ३)