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के लिए ऐसी कल्पना हो सकती है कि वे निश्चित रूप से किसी भगवान की आत्मा होंगे ।
गुणवान् को पहचानने के लिए गुणवान और ज्ञानी को पहचानने के लिए ज्ञानी बनना पड़ता है । उन्हें पहचानने वाले कितने ?
आनन्दघनजी को पहचानने वाले कितने थे ?
पूज्य उपा. यशोविजयजी स्वयं भी आनन्दघनजी को पहले कहां पहचानते थे ?
* गुरु की भक्ति में भी संघ की ही भक्ति है ।
यह संघ ४८ गुणों से युक्त है - २७ साधु के तथा २१ श्रावक के, कुल ४८ गुण हुए ।
आकाश में तारों की गिनती नहीं हो सकती, उस प्रकार संघ के गुणों की गिनती नहीं होती । कलिकाल में, पतन के काल में, ऐसा सब नहीं होता, यह न मानें । अब भी आचार्य, युग प्रधान आदि यहीं से ही होंगे ।
हमने ऐसे भाविक अपनी आंखों से देखे हैं जो माता-पिता की तरह साधु-साध्वीजी की भक्ति करते हैं । एक दिन गोचरी लेने के लिए यदि नहीं आयें तो अप्रसन्न हो जाते हैं - 'महाराज ! कोई वहोरने नहीं आया ?'
हम कहते हैं : 'आये थे न ?' वे कहते हैं : 'आये थे, परन्तु कोई गोचरी ग्रहण नहीं की।'
हम दक्षिण में दूर तक जाकर आये हैं, परन्तु कही भी कोई कष्ट नहीं हुआ । यह संघ ही था न भक्ति करने वाला ?
पूज्य धुरन्धरविजयजी म. : बड़ो का पुण्य बड़ा होता है। बड़ो की बात नहीं है, संघ की निष्ठा कितनी हैं वह देखें ।
यदि संघ के प्रति भक्ति न हो तो करोड़ो रूपये कौन खर्च कर सकता है ? अभी ही लाकडिया से धनजीभाई ने सिद्धाचल का संघ निकाला था । जिसमें दो करोड़ रूपयों से अधिक खर्च किये और यहां आकर उन्हों ने इक्कीस लाख रूपये जीवदया में लिखाये ।
मालशीभाई : यहां जीवदया में डेढ़ करोड़ रूपये एकत्रित
कहे
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