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इसी तरह से मरुदेवी का पुत्र-प्रेम भी प्रभु-प्रेम में बदल गया । प्रभु की प्रीति तो योग का बीज है । वह आपको मोक्ष के साथ जोड़ देती है । ऐसी प्रीति मरुदेवी को हुई थी ।
मरुदेवी माता को प्रभु के प्रति प्रेम हुआ वह योग का बीज गिना जायेगा या नहीं ? क्या शास्त्र का उल्लेख बताऊं ?
'जिनेषु कुशलं चित्तं तन्नमस्कार एव च ।' प्रभु-प्रेम के कारण मरुदेवी माता के वीर्योल्लास ने इतना उछाला मारा कि ठेठ आठवी दृष्टि तक पहुंच गये ।
मैं तो कहता हूं कि प्रतिमा के आलम्बन से भी श्रेणी लगाई जा सकती है, केवलज्ञान प्राप्त किया जा सकता है । 'निमित्त समान स्थापना जिनजी, ए आगम नी वाणी रे'
- पूज्य देवचन्द्रजी निमित्त रूप से हमारे समक्ष साक्षात् तीर्थंकर हो या प्रतिमा हो, कोई अन्तर नहीं पड़ता । नागकेतु को मूर्ति के समक्ष ही केवल ज्ञान हुआ था न ?
मरुदेवी की तरह विहंगम गति से मोक्ष मार्ग की ओर जाना हो तो प्रभु को पकड़ना ही पड़ेगा ।
* जिन विचारों को हम पूर्णतः नष्ट करना चाहते हैं, वे विचार तो शुक्ल ध्यान की प्रथम नींव में भी हैं ।
भारी कर्मों के कारण वांकी चातुर्मास में हम उपस्थित नहीं रह सके । खैर, अफसोस करने की कोई आवश्यकता नहीं है। पूज्य गुरुदेव के श्रीमुख से निकले वाणी के उद्गार इस पुस्तक के द्वारा प्रत्यक्ष तौर पर सुनने को मिले हों, उतना आनन्द हुआ ।
- साध्वी हर्षितप्रज्ञाश्री
(कहे कलापूर्णसूरि - ३000000000000000000 २१९)