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तो तीव्रता से सिखाते है, परन्तु क्या अपने जीवन में कभी दृष्टि करते हैं ?
'परोपदेशे पाण्डित्यं' अत्यन्त ही शीघ्रता करते हैं। हमारे खोखले शब्दों का कितना प्रभाव होगा ?
* 'अध्यात्म-मत-परीक्षा', 'अध्यात्मोपनिषद्' आदि अनेक ग्रन्थों की श्रेणी उपा. महाराज ने खड़ी कर दी । इससे प्रतीत होता है कि उन्हों ने अपनी तरह एक मिनिट भी नष्ट नहीं की होगी ।
ग्रन्थों की रचना क्यों की ? अहंकार के पोषण के लिए नहीं, परन्तु परोपकार की भावना से, करुणा-भावना से रचना की गई है।
कहीं लिखा है - स्वस्मृत्यर्थम् - मेरी स्मृति के लिए । __ ऐसे ग्रन्थ किसी योग्य व्यक्ति के हाथ में आ जायें तो काम हो जाये । उनका 'ज्ञानसार' ग्रन्थ देवचन्द्रजी के हाथ में आया
और वे बोल उठे - 'उपाध्यायजी तो मेरे लिए भगवान हैं ।' उन्हें वह ग्रन्थ अद्भुत प्रतीत हुआ और उन्हों ने उस पर 'ज्ञान मंजरी' टीका भी लिखी ।
* हमारे सभी अनुष्ठानों को सप्राण बनाने वाली भगवान की भक्ति है, जीवों की करुणा है ।
चैत्यवन्दन हम करते हैं, परन्तु चाहिये वैसा उल्लास नहीं है । वह प्राप्त करने के लिए हम यह ग्रन्थ पढ़ रहे हैं ।
तनिक ज्ञान बढ़ते ही हम क्रिया में शिथिल हो जाते हैं । प्रतिक्रमण, पडिलेहण आदि करते हैं, परन्तु कभी-कभी बेगार जैसा करते हैं । मैं भी उसमें शामिल हूं ।
पूज्य पं. कल्पतरुविजयजी म. : _ 'ज्ञानी श्वासोच्छ्वासमां करे कर्मनो छेह;
__ पूर्व कोडी वरसा लगे, अज्ञानी करे तेह ।' यह बात भी आती है ।।
पूज्यश्री : यह सत्य है परन्तु कौन सा ज्ञानी ? समितियों से समित तथा गुप्तियों से गुप्त मुनि । वह कदापि क्रिया की उपेक्षा नहीं करेगा ।
... ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप इन चारों के जितने भेद हैं उतने ही किहे कलापूर्णसूरि - ३noooooooooooooooo00 २१५)