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मार्ग में चलते हुए मुनि को उसने देखा और उस कसाई ने उसे काट डाला । अन्तिम समय में जैन मुनि के दर्शन से उसका जैन कुल में जन्म हुआ ।
तीर्थंकर पद भी गुरु-पद की आराधना से ही प्राप्त होता है ।
गुरु भगवंतो ने शासन चलाने के लिए कितना-कितना सहन किया है ? एक-दो प्रसंग बताता हूं -
शासन की बदनामी (अपकीर्ति) रोकने के लिए, यह पालीताना जिनके नाम से बसा हुआ है, वे पादलिप्तसूरिजी जीवित जलने के लिए तैयार हो गये थे । तरंगवई लोला के लिए साहित्यचोरी का आरोप था । उसे मिटाने के लिए उन्हें ऐसा करना पड़ा । यद्यपि उस पण्डित को पश्चाताप हुआ और आचार्य भगवन् बच गये ।
__ शासन की अपकीर्ति रोकने के लिए ही कालकाचार्य ने अपनी मृत्यु को निमंत्रण दिया था । ऐसे गुरु भगवन् मिले हैं तो उनकी समुचित आराधना कर लें ।
ऐसे गुरु का क्या वर्णन करें ? ___ 'सब धरती कागज करो, कलम करो वनराई ।
सब समुद्र स्याही करो, गुरु-गुण लिख्या न जाई ।'
श्रीकृष्ण ने गुरु-वन्दन के द्वारा ही सात नरकों में से चार के पापों का क्षय किया था तथा तीर्थंकर नाम-कर्म बांधा था जिसे हम जानते हैं ।
पूज्य धुरन्धरविजयजी म. :
गुरु का सान्निध्य मिले उतना कम । अतः इस सान्निध्य को आप छोड़ें नहीं ।
पूज्यश्री हीरविजयसूरिजी के पीछे उस काल में संघ पागल था । उस समय प्रत्येक नगर में करोड़पति थे । गुरुओं के बहुमान से ही आज लक्ष्मी बढ़ी हुई प्रतीत होती है । कुमारपालभाई गुरुकृपा के उत्कृष्ट उदाहरण हैं ।
कुमारपाल वी. शाह : वक्तव्य नहीं देना है । एक बात कह दूं ।
पू. साधु-साध्वीजी के दर्शनार्थ हम आये हैं । श्रवण करने को नहीं मिला हो, कम अथवा आधा मिला हो तो भी सन्तोष कहे कलापूर्णसूरि - ३WOOOOOB
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