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ऐसा कहने की अपेक्षा उनका ऐसा स्वभाव है यह कहना अधिक ठीक गिना जायेगा । ये पांचो थे, हैं और रहेंगे । इनके आधार पर ही आध्यात्मिक जीवन जिया जा सकता है ।
उनमें से ज्ञात एवं अज्ञात के उपकार भी स्वीकार करने हैं । अदृष्ट गुरु अनन्तानन्त हैं, ऐसा सिद्धचक्र पूजन में हम जानते हैं । किसी भी जन्म में तनिक भी उपदेश दिया हो, मित्र बनकर मार्गदर्शन भी दिया हो, वे भी अपने गुरु गिने जाते हैं । वे यदि भूल जायें तो ज्ञान भूल जायें । यदि धर्म नहीं खोया हो तो देव-गुरु को भूलें नहीं ।
अन्य दर्शनों में भी कहा है : 'प्रभु ! आपका स्मरण ही सम्पत्ति और विस्मरण ही विपत्ति है ।।
गौतम स्वामी को संसार महान् मानता है, परन्तु वे स्वयं तो गुरु महावीर के चरणों में ही लीन हैं ।
तापसों ने जब गौतम स्वामी के मुंह से गुरु महावीर देव की बात सुनी तब वे स्तब्ध हो गये ।
केवलज्ञानी बने तापस भी पीछे और छद्मस्थ गौतम आगे । यह है गुरु का बहुमान । हरिभद्रसूरिजी ने १४४४ ग्रन्थ गुरु को समर्पित किये । एक उपकारी साध्वीजी याकिनी महत्तरा को वे कदापि नहीं भूले । उन्हों ने प्रत्येक ग्रन्थ में धर्म-माता के रूप में उनका उल्लेख किया है ।
अभी वज्रसेन विजयजी ने अपने गुरु का नहीं परन्तु जम्बूविजयजी का उदाहरण दिया। उनके गुरुदेव पूज्य पं. भद्रंकर विजयजी महाराज कैसे महान् थे, वह हमें पता है । ___ 'गुरु दीवो गुरु देवता, गुरु विण घोर अंधार ।'
अंधेरी गुफा में धातुवादी प्रविष्ट हों और वहां दीपक बुझ जाये तो क्या दशा हो ?
ऐसी ही दशा गुरु को छोड़ देने पर हमारी होती है। भवभव भटकने का कारण यही है। गुरु मिले होंगे, परन्तु हम समर्पित नहीं हुए हों ।
___ 'होउ मे एएहिं संजोगो ।' ।
'मुझे ऐसे गुरु का संयोग हो ।' कहे कलापूर्णसूरि - ३ wastessonsomwwwwwwwwwcom १९५)