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बने इसका हमें तनिक भी दुःख नहीं है । प्राप्त सामग्री का कोई उपयोग नहीं है । साधना की कोई दृष्टि नहीं है, फिर भी हम कहते हैं कि मोक्ष क्यों नहीं ?
मन को बलपूर्वक खींचना नहीं है। खींचोगे तो मन अधिक छटकेगा । उपा. यशोविजयजी ने लिखा है - मन के साथ प्रेमपूर्वक काम लें - हे बालक मन ! तू चंचल क्यों हैं ? तुझे क्या चाहिये ? आनन्द चाहिये न ? वह आनन्द तुझे स्थिरता बतायेगा । तू तनिक स्थिर हो जा । तेरी अस्थिरता ही तुझे आनन्द का खजाना बताती नहीं है।
इस प्रकार प्रेम से मन को समझाने से ही वह धीरे-धीरे वश में हो जाता है, साधना के लिए वह अनुकूल बनता है ।
पूज्य आनन्दघनजी, पूज्य यशोविजयजी, पूज्य देवचन्द्रजी आदि महात्माओं का मन भगवान में लग गया, साधना का मार्ग खुल गया । इसका अर्थ यह हुआ कि उन्हों ने पूर्व जन्म में साधना की होगी । अधूरी साधना पूर्ण करने के लिए ही उन्हों ने योगीकुल में जन्म लिया है ।
मुझे स्वयं को भी ऐसा अनुभव होता है। जो भक्त भगवान को समर्पित हो गया, उसकी समस्त अपूर्णता पूर्ण करने के लिए भगवान प्रतिबद्ध हैं, मुझे तो निरन्तर ऐसा लग रहा है।
विपत्तौ किं विषादेन, संपत्तौ हर्षणेन किम् । _ 'ज्ञानी ने देखा हो वह होता है।' यह बात भक्त को अधिक प्रेरक बनती है, आराधना में अधिक सक्रिय करती है और जो अभक्त होता है उसे निष्क्रिय बनाती है ।
सिद्धगिरि जैसी उत्तम धरा पर आये हैं तो साधना के मार्ग पर चलना प्रारम्भ कर ही देना । अन्य स्थान पर जो सफलता प्राप्त करने में वर्षों लग जाते हैं, वह सफलता यहां अल्प समय में ही प्राप्त हो जाती है, इस धरा का इतना महान् प्रभाव है ।
* कोई भी जीव चाहे जहां से सिद्ध हो नहीं सकता, उसे यहां ढाई द्वीप में आना ही पड़ता है । .
लिफ्ट में बैठ कर ऊपर की मंजिल पर जा सकते हैं । उस प्रकार यहां आकर ही सिद्ध शिला पर जा सकते हैं । वह लिफ्ट (कहे कलापूर्णसूरि - ३amasmomooooooooooooom १८९)