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नकली ज्ञान भी होता है, परन्तु साधना में वही ज्ञान चलता है जिससे दोषों का निवारण हो और गुणों की प्राप्ति हो ।
गुणों से ही सच्ची तृप्ति होती है।
* भगवान को कह दीजिये : 'प्रभु ! मैं धुंए से तृप्त नहीं होऊंगा । पेट में कुछ जाये तो ही तृप्ति होगी न ? भगवन् ! अब आपको मुझे प्रत्यक्ष दर्शन देने ही पडेंगे । 'धुमाडे धीजें नहीं साहिब, पेट पड्या पतीजे ।'
* साधक अवस्था में भगवान ने समस्त जीवों के साथ प्रेम किया है। उनका जीवन बताता है - 'यदि मोक्ष में जाना हो तो समस्त जीवों को आत्मवत् गिनना पड़ेगा । दशवैकालिक के चार अध्ययनों (चौथे अध्ययन में छ: जीवनिकाय की बात है।) के बिना बड़ी दिक्षा प्रदान नहीं की जाती, इसका यही कारण है। इससे पूर्व 'आचारांग' के शस्त्र-परिज्ञा के अध्ययन के बिना बड़ी दीक्षा प्रदान नहीं की जाती थी ।
* दशवैकालिक मूल आगम हैं ।
आवश्यकों एवं दशवैकालिक के तो प्रत्येक के जोग हो चुके हैं। उन पर उपलब्ध समस्त साहित्य पढ़ लो तो भी निहाल हो जाओगे । नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका आदि कितना विशाल साहित्य है ?
आप यदि उसकी गहराई में उतरो तो भी आपका जीवन योगीश्वर का जीवन बन जाये ।
ये मूल आगम हैं। ये सुदृढ होंगे तो अगला सरल हो जायेगा । नींव सुदृढ होती है तो ऊपर का भवन आप निर्भय होकर निर्माण कर सकते हैं । फिर आपके आनन्द में होने वाली वृद्धि को कोई रोक नहीं सकता ।
अन्य दर्शन वालों में उस समय भी आनन्द में मग्न रहने वाले योगी थे । अतः भगवान ने गौतम स्वामी को कहा था कि हमारा जैन साधु तो केवल बारह महिनों में समस्त देवों के सुख से भी अधिक प्राप्त कर लेता है । (मनुष्यों की तो बात ही छोड़ो) साधु के उस सुख के लिए तेजोलेश्या शब्द का प्रयोग हुआ है ।
* देह के तीन दोष हैं - वात, पित्त और कफ । आत्मा के तीन दोष हैं - राग, द्वेष और मोह ।
[१६८6ommonsoooooooo00000 कहे कलापूर्णसूरि-३)