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शान्ति स्नात्र में पूज्यश्री
९-८-२०००, बुधवार
सावन शुक्ला-१०
* निक्षेप अर्थात् स्वरूप, पर्याय । यह कदापि द्रव्य से भिन्न नहीं होता । भगवान के पर्याय भगवान से भिन्न नहीं होते । इसीलिए नाम आदि चार भगवान से भिन्न नहीं गिने जाते । (प्रत्येक वस्तु के चार निक्षेप होते ही हैं ।)
भाव भगवान की तरह नाम आदि भी पूज्य ही हैं ।
भाव भगवान चाहे नहीं मिले, नाम आदि तीन तो मिले ही हैं न ? यह जानकर कैसा भावोल्लास बढ़ता है ? भावोल्लास से कर्म-निर्जरा बढ़ती है, कर्म-निर्जरा से आत्म-शुद्धि बढ़ती है और उससे चित्त की प्रसन्नता बढ़ती है ।
जब तक तृप्ति नहीं होती तब तक भोजन करते हैं, परन्तु क्या प्रसन्नता न हो तब तक धर्मानुष्ठान करते हैं ?
यदि आत्मा को प्रसन्न-तृप्त करनी हो तो गुण चाहिये । पुद्गलों से होने वाली शारीरिक तृप्ति नश्वर है, गुणों से होने वाली तृप्ति अनश्वर है ।
ऐसा ज्ञान आत्मा के साथ अवश्य जोड़ देता है । नकली पैसे भी होते हैं, परन्तु क्या वे बाजार में चलते हैं ?
(कहे कलापूर्णसूरि - ३ 666666
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