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समुद्देश्य = उन सूत्रों को स्थिर-परिचित करना । अनुज्ञा = अन्यों को देने के लिए समर्थ बनना ।
इस ढंग से एक नवकार भी करें तो काम हो जाये । नवकार पर पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. का विशाल साहित्य है। कहो, पठन कर लोगे ? क्या भावित बना लोगे ?
सूत्र बोलते समय क्या अर्थ का चिन्तन करते हैं ? कि शीघ्र पूरा कर देते हैं ? मेरा जैसा भी कभी कह दे कि शीघ्र बोलो ।
यदि सूत्र धीरे-धीरे बोले जायें तो अर्थ का उपयोग रहता
* ज्ञान है, परन्तु साथ में प्रमाद भी है, अतः सोचें जितना अनुष्ठान हो नहीं सकता । आराधकों को इसका दुःख रहता है । अतः नम्रता रहती है । अभिमान नहीं आता । यही 'इच्छायोग' है।
ऐसा आराधक दूसरों के द्वारा होती प्रशंसा सुन कर फूलता नहीं है । वह अपनी कमजोरी जानता है।
* सामर्थ्ययोग अर्थात् केवलज्ञान की पूर्व अवस्था । जिस तरह सूर्योदय से पूर्व अरुणोदय होता है, उस तरह । केवलज्ञान से पूर्व यह 'सामर्थ्ययोग' होता है, परन्तु इससे पूर्व इच्छायोग होना चाहिये ।
'इच्छायोग' नींव है। 'शास्त्रयोग' मध्य भाग है । 'सामर्थ्ययोग' शिखर है ।
* अतिचार अर्थात् खर्च-खाता । समझदार व्यक्ति खर्च कम करता है । यदि कोई अधिक खर्च करता हो तो भी ऐसा नहीं करने की बात उसे समझाता हैं । क्योंकि आय कम और व्यय अधिक है, दो-तीन टको पर व्याज पर रुपये लिए हुए हैं ।
यहां भी अपना व्यय (अतिचार) अधिक है। आय (आराधना) कम है । परिणाम क्या होगा ? यह आप समझ सकते हैं ।
* घर-परिवार का त्याग करने के पश्चात्, इतनी आराधनाएँ करने के पश्चात्, हमें जो गुणस्थानक (छठा) मिले उसका नाम ज्ञानियों ने 'प्रमत्त' दिया है । क्या ऐसा नाम आपको प्रिय लगता है ?
(१६४0ooooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)