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पंच परमेष्ठियों के अनन्त गुणों में अपनी आत्मा लीन हो जाये तब द्रव्य से वृद्धि हुई । आटे में घी-शक्कर डालने से भार बढ़ता है, उस प्रकार अपनी आत्मा परमेष्ठियों के संग से पुष्ट बनती है । आटा = अपनी आत्मा ।
घी-शक्कर = पंच परमेष्ठी ।
आटे में भी कुछ तो मधुरता है । यह कोई नीम का चूर्ण नहीं है । अपनी आत्मा भी ज्ञानमय है, जड़ नहीं है ।
गुणों से एकता = आत्मा एवं परमेष्ठी घुल-मिल गये । आटा, शक्कर और घी मिल गये । अब अलग स्वाद नहीं आता । प्रत्येक कण में मधुरता का अनुभव होगा ।
पर्याय (कार्य) से तुल्यता । जो कोई यह माल खायेगा उसे समान तृप्ति मिलेगी ।
यह बात आध्यात्मिक सन्दर्भ में घटित करके देखो तो सब समझ में आ जायेगा ।
यह प्रक्रिया जानने से जानकारी प्राप्त होगी, परन्तु अनुभव करना हो तो साधना ही करनी पड़ेगी ।
वांकी चातुर्मास का तो अवसर नहीं मिला, परन्तु पुस्तक पढ़ने पर वांकी चातुर्मास की वाचना का आस्वादन करने का अवसर मिला ।
लेखक पूज्य पं. मुक्तिचन्द्रविजयजी म. तथा पूज्य गणिश्री मुनिचन्द्रविजयजी म. का अत्यन्त उपकार । उन्हों ने आलेखन किया ही नहीं होता तो हम तक कहां से पहुंचता ?
साध्वी शीलवती श्री
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१८ कहे कलापूर्णसूरि - ३