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है, उस प्रकार इन तीन योगों के द्वारा, आठ दृष्टियों के द्वारा यह ज्ञात होता है कि हम कहां हैं ? हमारी साधना की मात्रा ज्ञात होती है ।
जो साधना पहले की हो, उसे छोड़ कर आगे नहीं बढ़ना है, प्रत्युत उसे अधिक पुष्ट बनानी है । कोई व्यक्ति करोड़पति बन जाये, तो क्या पूर्व अर्जित हजार रुपयों को छोड़ दे ? हज़ार ही बढ़ते-बढ़ते करोड़ बनते हैं, उस प्रकार पूर्व की साधना ही बढ़तेबढ़ते पराकाष्ठा पर पहुंचती है ।
हमारे पूर्वज योग-साधना में इतने आगे बढ़े हुए थे कि सुनकर हम दंग हो जाते हैं । 'ध्यान- विचार' में उल्लेख है कि पुष्पभूति नामक आचार्य अनेक दिनों तक समाधि में रहते थे ।
उन आचार्य ने एक शिष्य को ही समाधि में से जागृत करने का रहस्य समझाया था । दूसरे शिष्यों को लगा कि कहीं ये अपने आचार्य को मार न डाले । दूसरे शिष्यों के शोर-शराबा करने पर शिष्य ने आचार्य को अंगूठा दबाकर उन्हें समाधि में से बाहर निकाला । कारण पूछने पर शिष्य ने आचार्य को बताया कि इन गुरु भाईयों के कारण आपको समाधि में से शीघ्र जगाये हैं । क्षमा करें ।
समाधि हमारी मोक्ष- यात्रा में प्रचण्ड वेग लाती है । पका हुआ आम खाने के लिए चींटी भी जाती है और पक्षी भी जाता है । दोनों पका हुआ आम चाहते हैं, परन्तु वेग किसका अधिक है ? * धर्माचरण की सच्ची इच्छा ही 'इच्छायोग' है । इच्छायोग अवश्य ही 'शास्त्रयोग' में ले जाता है । शास्त्रयोग 'सामर्थ्ययोग' में ले जाता है । यही उसकी कसौटी है ।
सूत्रों एवं अर्थों के ज्ञाता ज्ञानी धर्मानुष्ठान करना चाहते हैं, परन्तु प्रमाद से अपूर्ण रूप में वह करता है । यही 'इच्छायोग' है ।
विधि के अनुसार होता नहीं है (जान बूझ कर विधि का अनादर नहीं होना चाहिये) अतः अनुष्ठान छोड़ना अच्छा है, यह समझकर छोड़ देने वाले विचार करें । वे 'इच्छायोग' को ही छोड़ देते हैं ।
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ॐ कहे कलापूर्णसूरि ३