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अभी हमारी चेतना निमित्तालम्बी है। भगवान कहते हैं - 'तू इसे उपादानालम्बी बनाकर मेरे जैसा क्यों नहीं बनता ?'
जब तक ऐसी कक्षा नहीं मिले तब तक स्व-भूमिका के अनुसार पूजा चालु रखनी होगी ।
प्रश्न : 'अरिहंताणं' में बहुवचन किस लिए ?
उत्तर : अद्वैतवाद का व्यवच्छेद करने के लिए तथा अनेक अरिहंतो को नमस्कार करने से अधिक फल मिलता है, जिस प्रकार अधिक मूलधन का अधिक व्याज प्राप्त होता है । 'मुझे अधिक फल मिलेगा ।' यह जानने के पश्चात् नमस्कार करने वाले के भाव कितने बढ़ते हैं ?
* ये धुरन्धरविजयजी अभी ही आये और मुझे अभी ही इनके गुरु महाराज पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. का चिन्तन याद आया -
द्रव्य से वृद्धि गुण से एकता पर्याय से तुल्यता
प्रथम दृष्टि में यह पढ़कर नया प्रतीत हुआ, परन्तु बाद में सोचने पर बहुत बहुत जानने को मिला ।
मैं समस्त मुनियों, आचार्यों को कहना चाहता हूं कि यह द्रव्यानुयोग का अध्ययन करने जैसा है।
यह साधु-जीवन प्राप्त होने के पश्चात् बकरे की तरह 'बें बें' क्यों करते रहें ? सिंहत्व क्यों न जगाये ?
सिंहत्व पहचानना हो तो सिंह को (प्रभु को) पहचानना होगा । इसके लिए द्रव्यानुयोग विशेष आवश्यक है ।
एक पद्यांश कह कर पूरा करता हूं : 'जे उपाय बहुविधनी रचना, जोग माया ते जाणो रे । शुद्ध द्रव्य गुण पर्याय ध्याने, शिव दिये प्रभु सपराणो रे ॥' क्या इसका अर्थ जानते हैं ? चलो, कल बताऊंगा ।
(१५६ 800mmonsoooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)