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मैं कोई विद्वान नहीं हूं। कितना पढा हुआ हूं वह मुझे पता है । परन्तु जब जो आवश्यक होता है, वह मुझे याद आ जाता है । भगवान बराबर याद दिला देते हैं । वे जैसा बुलवाते हैं वैसा बोलता हूं।
* सुविधिनाथ भगवान के स्तवन में पूज्य देवचन्द्रजी कहते
'प्रभु ! मेरे गुण भले क्षयोपशम के हैं, परन्तु वे आपके क्षायिक गुणों के साथ मिल गये हैं । अब क्या बाकी रहे ? बिन्दु सिन्धु में मिलने पर अक्षय बन जाता है, उस प्रकार अपना क्षुल्लक ज्ञान, अपने क्षुल्लक गुण प्रभु के गुणों में मिला दें तो विराट् बन जायेगा, अखूट बन जायेगा ।
शुद्ध स्वरूपी प्रभु में अपनी चेतना मिल जाये तो उसका आस्वाद प्राप्त होता है । यह हुई शुद्ध प्रतिपत्ति पूजा ।
क्या आपको यह विषय अच्छा लगा ? प्रश्न इसलिए पूछता हूं कि आपकी जिज्ञासा को मैं जान सकुँ ।
इस समय 'नमः' का वर्णन चालु है । 'नमः' पूजा के अर्थ में है । पूजा अर्थात् संकोच । हम तो द्रव्य से भी संकोच करते नहीं हैं । 'अहमदाबादी' खमासमण देते हैं ।
पू. हेमचन्द्रसागरसूरिजी : आप भी तो अहमदाबादी ही हैं न ?
पूज्यश्री : नहीं, मैं राजस्थानी हूं। गुजराती बोलता हूं, परन्तु गुजराती नहीं हूं।
पूज्य देवचन्द्रजी आदि के प्राचीन स्तवन अत्यन्त भावपूर्ण हैं । उन्हें बार-बार इसलिए बोलना है कि उनके भाव हमको भी स्पर्श करें । इन समस्त रचयिताओं ने ध्यान के द्वारा प्रभु के साथ अभिन्नता स्थापित कर ली है जो उनकी रचनाओं से स्पष्ट प्रतीत होता है ।
* प्रभु कहते हैं : 'तू तो अभी मित्र के घर में है । अभी तक स्व-घर में कहां आया हैं ? मैं तो तुझे अपने समान बनाना चाहता हूं । बारहवे गुणस्थानक तक अभी मित्र का घर कहलाता है ।
कहे
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