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ज्ञानविमलसूरिजी ने आनन्दघनजी पर स्तबक लिखने का निश्चय किया परन्तु लगा कि विवेचन बैठ नहीं रहा है। उन्हें तुरन्त समझ में आया कि आनन्दघनजी की प्रसादी ध्यान के बिना समझ में नहीं आयेगी ।
सूरत में सूरजमण्डन पार्श्वनाथ का छ: माह तक ध्यान किया । उन्हों ने प्रार्थना की कि प्रभु ! तू मुझे शक्ति प्रदान कर ।
उसके बाद उन्हों ने कलम चलाई । आज भी वह 'टबा' विद्यमान है।
इसे कहते हैं ज्ञान के लिए पृष्ठ भूमिकारूप ध्यान । ___ अन्तिम समय में १५-१५ दिनों तक ध्यानावस्था में रहते थे, यह तो आपको ख्याल है, परन्तु उनका सम्पूर्ण जीवन ध्यानमय था, क्या यह आपको पता है ? आज तो ज्ञान-ध्यान की परम्परा विलीन होने लगी है । पूज्य ज्ञानविमलसूरिजी कहते हैं :
_ 'वींझे छे शुद्ध मुज चेतना...' महाविदेह में भले ही नहीं जा सके, परन्तु विदेह अवस्था में यहीं पर अपने भीतर महाविदेह प्रकट किया जा सकता है ।
भक्तिनगरी ही पुण्डरीकिणीनगरी है। मेरा साहिब आत्मदेव ही सीमंधर स्वामी हैं । ऐसा पूज्य सागरजी ने प्रेक्टिकल किया था ।
नित्य ज्ञान-ध्यान में डुबकी लगाकर ही उन्हें सच्ची अंजलि दी जा सकती है।
पू. धुरन्धरविजयजी म. :
पूज्य कलापूर्णसूरिजी के प्रतिनिधि के रूप में पूज्य गणिश्री पूर्णचन्द्रविजयजी तथा पूज्य गणिश्री मुनिचन्द्रविजयजी दोनों पांचपांच मिनट बोलेंगे ।
* पूज्य गणिश्री पूर्णचन्द्रविजयजी : मन्त्र-मूर्ति-आगम उत्कृष्ट साधना पद्धति है ।
मन्त्र-मूर्ति-आगम के द्वारा प्रभु का भाव-मिलन किया जा सकता है।
(पूज्य आचार्यश्री कलापूर्णसूरीश्वरजी महाराज के पधारने के कारण वक्तव्य अपूर्ण रहा ।)
(१०२ooooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)