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ही है अन्यथा उनकी देशना के पश्चात् गणधरों की देशना सुनने के लिए कौन रुके ? परन्तु श्रोताओं को गणधरों की देशना भगवान के जैसी ही लगती है ।
यहां भगवान का प्रभाव कार्य करता है । वही प्रभाव आज भी कार्य कर रहा है । गणधरों की स्थापना भगवान ने की है उस प्रकार तीर्थ की स्थापना भी भगवान ने ही की है ।
* आगमों में स्थान-स्थान पर 'त्तिबेमि' शब्द बताता है कि मैं मेरी ओर से नहीं, भगवान की ओर से कहता हूं। 'सुअं मे आउसं तेणं भगवया' मैंने भगवान से यह सुना है । जो सुना है वह तुझे कहता हूं।
* भगवान चाहे आज विद्यमान नहीं हैं, फिर भी गुरु आज भी ध्यान के द्वारा मिलती समापत्ति के योग से भगवान के दर्शन करा सकते हैं ।
___ 'सामायिक धर्म' नामक पुस्तक में भाव-स्पर्श द्वार अवश्य पढ़ें । उससे यह समापत्ति का पदार्थ अधिक स्पष्ट होगा - गुरु किस प्रकार शिष्य को भगवान का स्पर्श कराते हैं ?
प्रीति हुई हो उस व्यक्ति को देखने का मन होना स्वाभाविक है। आनंदघनजी की चौबीसी के प्रथम स्तवन में प्रभु की प्रीति बताई है । चौथे स्तवन में दर्शन की उत्कट अभिलाषा व्यक्त की
अभिलाषा तीव्र बने तो ही प्रभु के दर्शन होते हैं, प्रभु के दर्शन कराने वाले गुरु मिलते हैं।
यह बात याद कराने के लिए ही मानो गुरु आपको नित्य प्रति जिनालय में दर्शनार्थ भेजते हैं ।
आगे बढ़ कर सच्चा प्रभु-भक्त मूर्ति की तरह गुरु में, तीर्थ में और आगमों में भी भगवान के दर्शन करते हैं । भगवान ने जिनकी स्थापना की हो उनमें उनके दर्शन क्यों न हों ?
इक्कीस हजार वर्षों तक शासन चलेगा, जिसमें अपनी शक्ति कार्य नहीं करती, भगवान की शक्ति कार्य कर रही है, क्या यह समझ में आता है ? तीर्थंकर प्रभु की अप्रतिम शक्ति थी, इसी लिए तो इन्द्र ने अन्त में कुछ ही क्षणों का आयुष्य बढ़ाने (१२८ wwwoooooooooooomnoon कहे कलापूर्णसूरि - ३