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शब्द है। भगवान की शक्ति की स्थापना चतुर्विध संघ, द्वादशांगी
और प्रथम गणधर में हो चुकी है। क्या यह समझ में आता है ? एक आदिनाथ भगवान की यह शक्ति (तीर्थ में रखी हुई शक्ति) पचास लाख करोड़ सागरोपम - आधे चौथे आरे तक चली ।
यह शक्ति आंज भी कार्य करती है। इसीलिए तो हम 'देवगुरु-पसाय' शब्द का प्रयोग पुनः पुनः करते रहते हैं । 'देव-गुरुपसाय' कहना अर्थात् भगवान एवं गुरु की शक्ति को स्वीकार करना ।
अपनी उपादान शक्ति का प्रकटीकरण पुष्ट निमित्त भगवान के द्वारा ही हो सकता है, इतना तो स्वीकार करना ही पड़ेगा । देवगुरु की कृपा से ही मुक्ति का मार्ग मिलेगा ।
___ इस समय भले साक्षात् भगवान नहीं है, परन्तु नाम आदि तीन तो हैं ही । यह बात गुरु के द्वारा जानने को मिलती है । इसीलिए गुरु की आराधना से मोक्ष मिलता है, 'गुरु बहुमाणो मोक्खो ।' यह कहा गया है।
गुरु के प्रति बहुमान रखने वाला व्यक्ति अवश्य मोक्ष में जायेगा । अर्थात् वह साधना के बिना ही मोक्ष चला जायेगा, यह न मानें । गुरु का बहुमान उसके पास साधना करायेगा ही । यही गुरु-बहुमान कहलाता है । गुरु का बहुमान कदापि निष्क्रिय नहीं होता । वह साधना करायेगा ही।
* पूज्य आनंदघनजी ने भगवान को 'मुक्ति परम-पद साथ' कहा है । परम-पद न मिले तब तक भगवान साथ रहते हैं । भक्त की जीवन-नैया मोह के तूफान से भले डांवाडोल हो जाये, परन्तु डूबती नहीं है क्योंकि भगवान साथ हैं ।
* गुरु की भक्ति के प्रभाव से इस काल में भी समापत्ति के द्वारा भगवान के दर्शन हो सकते हैं । ऐसा 'योगदृष्टि समुच्चय' में उल्लेख है ।
उसकी प्रतीति आनन्द के द्वारा होती है। भगवान के दर्शन होते ही योगी के हृदय में आनन्द की ऊर्मियां उठती हैं । वह आनन्द ही बता देता है कि भगवान मिल गये हैं ।
साधना अपरिपकव है अतः भगवान के दर्शन नहीं होते । (१४६ 0000000000000000@ कहे कलापूर्णसूरि - ३)