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दरिद्र एवं अभागे व्यक्ति को चिन्तामणि नहीं मिलता, उस प्रकार दीर्ध संसारी को ऐसा चैत्यवन्दन नहीं मिलता । चैत्यवन्दन आपको मिला, उसमें आपका कितना पुण्य है यह सोचना ।
हरिभद्रसूरिजी का कथन है कि यह बात मैं नहीं कहता । आगमों के रहस्य के ज्ञाताओं ने यह बात कही है ।
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पूज्यश्री का वात्सल्य एवं वचन - लब्धि
यह बात है सन् १९८५ की। एक बार किसी गृहस्थ के वहां पुरानी पुस्तकें बेचने के लिए रखी थीं। उनमें से 'तत्त्वज्ञान प्रवेशिका' पर दृष्टि गई । दो तीन पृष्ठ पढ़े और मानो कोई नवीन रहस्य मिला हो, वैसा भाव हुआ । आगे-पीछे के पृष्ठ फट गये थे, अतः ज्ञात नहीं हो सका कि लेखक कौन हैं। जांच करने पर ज्ञात हुआ कि पू. आचार्यश्री की यह कृति है । मन में हुआ कि यह तत्त्वदोहन तो जैन मात्र को प्राप्त कराने योग्य है ।
इतने में कच्छ की तीर्थयात्रा पर जाने का काम पड़ा । सायंकाल में मांडवी पहुंचे । ज्ञात हुआ कि आचार्यश्री पधारे हैं । संध्या हो चुकी थी । जांच की तो किसी भाई ने कहा कि सन्ध्या हो गई है, पूज्यश्री अब मिलेंगे नहीं । मैंने कहा कि पूछो कोई बहन अहमदाबाद से आई हैं और 'तत्त्वज्ञान प्रवेशिका' के विषय में बात करनी है। कोई पुन्योदय होगा, अनेक जीवों के सद्भाग्य जुडे हुए होंगे, और पूज्य श्री बाहर के बरामदे में आये । हम तीन बहनें थी । आदरपूर्वक वन्दन करके बैठी ओर पूछा, 'साहेबजी ! 'तत्त्वज्ञान प्रवेशिका' विदेश ले जानी है और जिज्ञासुओं तक उसका रहस्य पहुंचाना है । आप कुछ बोध दें । पूज्य श्री ने एक पाठ का रहस्य समझाया, परन्तु चमत्कार यह हुआ कि उक्त पुस्तक एक बार पढ़ी और प्रथम बार ही उसके भीतर के रहस्य स्पष्ट होते गये । यह पूज्य श्री की वचनलब्धि ही थी । फिर तो ५०० पुस्तकें मंगवाई । अफ्रीका, लन्दन और अमेरिका तक पुस्तकें पहुंची। लगभग दो हजार जिज्ञासुओं में अध्ययन हुआ ।
सुनन्दाबेन वोरा,
कहे कलापूर्णसूरि ३
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कळळ १३३