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राजनाद गांव में तेरह वर्ष का लड़का बाहर घूमने गया था । गन्दी बस्ती में जाने से उसे हैजा हो गया । उस समय कोई ऐसे उपचार नहीं थे । निरन्तर दस्तें लगने और वमन होने से वह लड़का
मर गया ।
उस समय कोई विशेषज्ञ डॉक्टर मिल जाये तो ? अभी इतने हैजे के केस बने, किन्तु सभी बच गये न ? यह डॉक्टर का उपकार है ।
भगवान भी इस प्रकार हम पर सतत उपकार करते रहते हैं, परन्तु भगवान का उपकार समझ में नहीं आता, यही कष्ट है । भगवान का यही कार्य है, रोग ग्रस्त मनुष्यों की देखभाल करनी ।
हम बीमार हैं । भगवान धन्वन्तरी वैद्य हैं । कठिनाई यह है कि हमें अपनी ही बीमारी समझ में नहीं आती ।
सभी वक्ताओं का उत्तरदायित्व हैं कि वे श्रोताओं को भगवान तथा धर्म का उपकार अच्छी तरह बतायें, उनके हृदय में भगवान तथा धर्म के प्रति आदर - भाव उत्पन्न करें । इतना हो जाये तो अन्य कार्य अत्यन्त सरल हो जायेगा ।
* धर्म निरन्तर विधिपूर्वक एवं आदरपूर्वक होना चाहिये । ऐसा धर्म होता रहे तो दूरन्त संसार का भी अन्त हो सकता है । * सही संसार तो भीतर है । जन्म-मरण आदि तो बाह्य फल हैं । इन्हें उत्पन्न करने वाला कर्म है, सहजमल है । इस पर मुख्य प्रहार होना चाहिये । डालियों, पत्तों पर प्रहार न होकर मूल पर प्रहार होना चाहिये ।
* यहां प्रश्न उठता है कि भाव नमस्कार के लिए ही यह धर्म है । तो जिसे भाव नमस्कार मिल गया है, उसे तो नमस्कार की आवश्यकता नहीं है । वे तो कृत-कृत्य हो गये । कदाचित् वे यह पाठ बोलें तो भी मृषावाद गिना जायेगा । जो सिद्ध हो गया है उसे पुनः सिद्ध करने की क्या आवश्यकता ?
उत्तर : अभी तक आपने तत्त्व का परिज्ञान नहीं पाया । भाव नमस्कार में भी तारतम्यता है ही । भाव नमस्कार वाले को भी अभी तक अधिक उत्कर्ष प्राप्त करना होता ही है ।
कहे कलापूर्णसूरि ३
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