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दीक्षा प्रसंग, लुणावा (राज.), वि.सं. २०३२
३-८-२०००, गुरुवार
सावन शुक्ला -४
* जिनके कर-कमलों से इस तीर्थ की स्थापना हुई, उनका सामर्थ्य अप्रतिहत एवं अचिन्त्य था । आज भी उक्त सामर्थ्य सक्रिय है। तीर्थ की भक्ति करने से उस सामर्थ्य का अनुभव होता है ।
स्वयं को पूर्ण समपित हो जाये उसे तीर्थ, तीर्थंकर बनाते हैं । प्रत्येक तीर्थंकर तीर्थ के द्वारा ही तीर्थंकर बने हैं जो उनके नमस्कार ('नमो तित्थस्स') के द्वार ज्ञात होता है । तीर्थंकर भले ही नहीं मिले, परन्तु जिस में से तीर्थंकर उत्पन्न होते है वह तीर्थ मिला है, यह कम पुण्य की बात नहीं है ।
दिव्य नेत्रों वाले तीर्थंकर चाहे नहीं है, परन्तु उनके शासन के रागी ज्ञानी मिलते ही हैं ।
'वस्तु विचारे रे दिव्य नयनतणो रे,
विरह पड्य निरधार; तरतम जोगे रे तरतम वासना रे, वासित बोध आधार ॥ .
- पू. आनंदघनजी तीर्थंकर भगवान का प्रभाव गणधरों पर तो स्पष्ट प्रतीत होता कहे कलापूर्णसूरि - ३00
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