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यह प्रभु-मिलन का आनन्द है, जो इन पंक्तियों में व्यक्त हुआ है।
* ज्ञानी कहते हैं : पल-पल, सांस-सांस में प्रभु का स्मरण करो । प्रभु को याद नहीं करते तब निश्चय मानें कि मन संक्लिष्ट है । प्रभु हो तो मनं कदापि संक्लिष्ट नहीं होता ।
'तुम न्यारे तब सब ही न्यारा...' (३) गुरु योग :
भगवान दूर तो सब दूर । भगवान निकट तो सब निकट । ऐसे भगवान को नमस्कार करो । इस 'नमो' में विनय है । नवकार में प्रथम 'नमो' है, उसके बाद अरिहन्त है । 'नमुत्थुणं' में प्रथम 'नमो' है । दशवैकालिक में लिखा है -
___ 'आयारस्स मूलं विणओ ।' यह समस्त विनय नमो का महत्त्व बताता है । गुरु के विनय के बिना सम्यग् क्षयोपशम कदापि खुलता नहीं
ऐसे मनुष्य को पढ़ने की (अध्ययन करने की) इच्छा भी नहीं होती । उसे विचार भी ऐसे ही आते हैं कि अनपढ़ के भी शिष्य हो जाते हैं तो मुझे पढ़ने की सिर-पच्ची करने की आवश्यकता क्या ? ये अज्ञानी के विचार हैं ।
जिज्ञासा उत्पन्न करने के लिए सर्व प्रथम मोह का क्षय आवश्यक है। यदि यह क्षय नहीं हो तो क्षयोपशम चाहिये । इसीलिए यहां 'विशिष्ट क्षय - क्षयोपशमनिमित्ता इयं (जिज्ञासा) न असम्यगदृष्टेः भवति ।' ऐसा लिखा है, अन्यथा, क्षय के पश्चात् क्षयोपशम लिखने की आवश्यकता नहीं थी ।
* हम गृहस्थों को तो उपदेश देते है, परन्तु हम अपनी ही आत्मा को भूल जाते हैं । बारात में दुल्हा को ही भुला दिया गया है।
* बोध देने वाले गुरु में कम से कम चार गुण चाहिये । (१) यथार्थ नामवाले :
'तत्त्वं गृणातीति गुरुः ।' यह व्याख्या लागू हो ऐसे गुरु होने चाहिये ।
[११२ 000000000000000000mm कहे कलापूर्णसूरि - ३]