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'स्वामी तुमे कांई कामण कीg, चित्तधू अमाझं चोरी लीधुं...'
- पू. उपा. यशोविजयजी 'प्रभु ! मेरे हृदय में कैसे आयेंगे ?' 'तेरा हृदय कमल के समान कोमल बनेगा तब आऊंगा ।' भक्त एवं भगवान का यह संवाद है । 'हृदय कमल में ध्यान धरत हूं ।'
* अब प्रभु के शब्द सुनने नहीं हैं, पीने हैं, अस्तित्व में संभाल कर रखने हैं ।
चातक चाहे जितना प्यासा हो, वह नदी आदि का पानी नहीं पीता । क्योंकि उसके गले में छेद होता है, ऐसी प्राचीन कवियों की मान्यता है । वह जैसे वर्षा का पानी पीता है, उस प्रकार भक्त को यहां शब्दों को पीना है ।
हम तो वैखरी वाणी वाले हैं । परा वाणी के स्वामी प. आचार्य भगवन् पू. कलापूर्णसूरिजी यहां बिराजमान हैं ।
व्याख्यान शब्द परमात्मा है ।
रूप परमात्मा तो यहां बिराजमान समस्त साधु-साध्वीजी भगवंत हैं ही । हृदय को कमल के समान बना लें, प्रभु अवश्य आयेंगे ।
परम तपस्वी वर्धमान तप की १०० ओली के आराधक पूज्य आचार्यश्री नवरत्नसागरसूरिजी : सचमुच, आज मैं भाग्यशाली हो गया हूं। चाहें तो भी इतनी त्यागी-संयमियों की संख्या कहां मिलेगी ? आज एक साथ सबके दर्शन हो रहे हैं, जो शासन के श्रृंगार स्वरूप अणगार हैं । वे भी ऐसे उत्तम क्षेत्र में !
अपना धंधा आदि छोड़कर आने वाले श्रावक-श्राविका भी उत्तमता की कोटि में पहुंचे हैं ।
समस्त दुःखों से मुक्त करने की शक्ति प्रभु के शासन में है । अनन्त मैत्री के स्वामी भगवान जगत् के समस्त जीवों को दुःख में से मुक्त करने के लिए करुणा भावना भाते हैं । जीव शासन-रसिक बने तो ही वह दुःख मुक्त बन सकता है ।
मैत्री किसे कहते हैं ? होटल अथवा उद्यान में दो-चार मित्र खा-पीकर आओ, क्या यह मैत्री कहलाती है ? वहां तो कर्मों के ढेर ही लगेंगे, वहां पुद्गलो का राग ही बढ़ेगा । आत्मा के (३८ 60 0 WOROSS कहे कलापूर्णसूरि - ३)