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पू. आचार्यश्री हेमचन्द्रसागरसूरिजी : वे किस प्रकार? उनकी मान्यता तात्त्विक कैसे कही जाये ?
__ पूज्यश्री : हमें सम्पूर्ण नहीं पकड़ना है। थोड़ा ही लेना है । देखो 'कल्याण मन्दिर' में - 'त्वामेव वीततमसं०...'
प्रभु ! वे भले हरिहर के रूप में भजें, परन्तु वस्तुतः तुझे ही भजते हैं । शंख सफेद ही होता है, परन्तु किसी नेत्र-रोगी को पीले आदि रंग का दिखाई देता है, जिससे क्या हो गया ? शंख थोड़े ही पीला हो जायेगा ?
सम्पूर्ण 'शक्रस्तव' पढ़ो । बुद्ध, महादेव, शंकर, ब्रह्मा, विष्णु आदि के नाम प्रभु के ही नाम हैं ।
अधिक कहूं तो संसार के समस्त सुवाक्य, सारा ही सत्साहित्य भगवान का ही है । यहां से ही उड़े हुए छींटे हैं ।
* प्रभु के नाम से जीभ और स्थापना से आंखे निर्मल बनती हैं ।
* हम भले भगवान को कहें - मैं पतित हूं, पापी हूं, परन्तु भगवान हमें वैसे नहीं मानते । वे तो पूर्ण रूप से ही देखते
दोष लेने होंगे तो दोष देखोगे । गुण लेने होंगे तो गुण देखोगे ।
दुर्योधन एवं युधिष्ठिर का प्रसिद्ध दृष्टान्त ध्यान है न ? दुर्योधन को कोई अच्छा नहीं दिखाई दिया । युधिष्ठिर को कोई बुरा नहीं दिखाई दिया । दुर्योधन की आंखों से विश्व को देखेंगे या युधिष्ठिर की आंखों से ?
दुर्योधन के समान दृष्टिवाले तो भगवान में से भी दोष ढूंढ निकालेंगे । गोशाला कहता - मैं साथ था तब भगवान अच्छे थे । अब ठठारा बढ़ गया है । देव-देवियों का कितना परिवार साथसाथ रखते हैं ? वीतराग भगवान को यह आडम्बर कैसा ?
३६३ पाखंडी प्रभु के पास जाते हैं, परन्तु दुर्योधन की आंखें लेकर ही जाते हैं । इसीलिए वे प्रभु से कुछ प्राप्त नहीं कर सकते ।
* यदि संघ में जागृति लानी हो, कुंछ कल्याण करना हो तो एक कार्य करें । मैं इसी लिए यहां सूत्रात्मक बोल रहा कहे कलापूर्णसूरि - ३ 600 CROS CG BOSS 0 ७३)