________________
पूज्यश्री : एवंभूत नय की अपेक्षा से यह बात है । अन्यथा हम तो च्यवन से ही प्रभु को प्रभु के रूप में मानते ही हैं । च्यवन से ही क्यों ? तीर्थंकर नाम कर्म की निकाचना से पूर्व भी उन्हें भगवान मान सकते हैं ।
शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान की मूर्ति गत चौबीसी में घड़ी गई थी । आगामी चौबीसी में होने वाले पद्मनाभ एवं अमम स्वामी की मूर्ति भी इस समय पूजी ही जा रही हैं न ?
पत्थर सभी । अक्षर अभी ।
* नाम की आराधना नाम-मंत्र के द्वारा करनी है । स्थापना की आराधना प्रतिमा के द्वारा करनी है । कल मैं ने एक श्लोक दिया था वह याद है न ? 'मन्त्रमूर्त्तिं समादाय, देवदेवः स्वयं जिनः । सर्वज्ञः सर्वगः शान्तः सोऽयं साक्षाद् व्यवस्थितः ॥ ' 'प्रभु - मूर्त्ति में है क्या पड़ा ? हैं मात्र वे प्रभु नाम में है क्या पड़ा ? हैं मात्र वे ऐसा कहो मत सज्जनो ! साक्षात् ये निज - नाम - मूर्त्ति का रूप लेकर, स्वयं यहां हम जैसे छद्मस्थों को तो नाम एवं स्थापना ही दिखाई देती है । शेष दो भगवान (द्रव्य एवं भाव) तो हृदय में प्रकट करने हैं 1 बातचीत में भी हम क्या बोलते हैं ? मन्दिर में कौन सी मूर्ति है ? वैसे नहीं, कौन से भगवान हैं ? इस प्रकार पूछते हैं ? मूर्त्ति का तो जयपुर के मूर्त्ति-मुहल्ले में पूछते हैं ।
नाम-स्थापना के रूप में भगवान जाने जा सकते हैं, द्रव्य तीर्थंकर नहीं जाने जा सकते हैं । भगवान कहे और सुलसा आदि को जान सकें यह बात अलग है । अन्यथा हम अज्ञानी कैसे जान सकेंगे ? इस कारण ही तो संघ भक्ति की इतनी महिमा है । इसी संघ में से तीर्थंकर आदि होंगे । अभी भी अनन्त तीर्थंकर यहीं होने वाले है ।
भगवान हैं । आसीन हैं ।'
मैं तो कहता हूं कि यहां बैठे हुए इस समूह में भी द्रव्य तीर्थंकर क्यों न हों ?
* 'आया सामाइए' ऐसा पाठ मिलता ही है । फिर भी केवल सामायिक ही आवश्यक के रूप में नहीं बताई । उसे प्राप्त
( कहे कलापूर्णसूरि ३ कwww
७१