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जाते है, और गुण आने लगते हैं ।
अतः हम ऐसी साधना करें कि ऐसे प्रभु हमारे हृदय में, हमारी रग रग में निवास करें ।
भक्ति के बिना मुक्ति प्राप्त हुई ही नहीं है और किसी को मिलेगी भी नहीं, यह बात लिख रखें । आखिर ज्ञान आदि सब प्रभु-प्रेम में पर्यवसित होते हैं । ज्ञानयोग आदि सब मार्ग बाहर से अलग लगते हैं, परन्तु अन्त में प्रभु-प्रेम में सब एक हो जाते हैं।
प्रभु-भक्ति को तात्त्विक बनानी हो तो विशेषतः आप 'वीतराग स्तोत्र' कण्ठस्थ कर लें । उसमें लिखा है - भवत्प्रसादेनैवाहं०
'प्रभु ! आप ही निगोद में से बाहर निकाल कर मुझे यहां तक लाये हैं । अब आपको ही मुझे मुक्ति तक पहुंचाना है । ऐसी प्रार्थना हेमचन्द्रसूरिजी जैसे करते हों तो हम किस खेत की मूली हैं ?
* मेरे कहने मात्र से सामुदायिक प्रवचन के विषय में भक्ति के सम्बन्ध में सब सहमत हुए उसका आनन्द है । भक्ति के सम्बन्ध में अन्य वक्ता आपको समझ में आये ऐसी भाषा में कहेंगे ।
जैन संघ का उज्जवल भविष्य मैत्री एवं भक्ति से ही बनेगा, ऐसा दृढ विश्वास होना चाहिये । यदि विश्वास होगा तो सर्व प्रथम उसे जीवन में उतारेंगे और उसके बाद जगत् में फैलायेंगे ।
पूज्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी :
अगर वे सत्य संयम का हृदय में बीज न बोते, सभी संसार-सागर में खाते रहते गोते; न पावन आत्मा होती, न जीवित मन्त्र ये होते,
कभी का देश मिट जाता, जो ऐसे सन्त न होते । सर्व प्रथम अषाढ़ शुक्ला ११ को तलहटी पर सब मिले । उस समय का माहौल देखते ही प्रत्येक पूज्य के हृदय में भाव उत्पन्न हुआ कि प्रत्येक रविवार को मंच पर साथ-साथ क्यों न मिलें ?
प्रथम रविवार को मैत्री पर प्रवचन रहे । . बुधवार को अरिहंत का जाप हुआ ।
(कहे कलापूर्णसूरि - ३ 000000000000000000 ९३)