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* उपमिति में एक दृष्टान्त आता है ।
एक बाबाजी को चोरों ने ऐसा वश में किया कि वे सभी सम्पत्ति लूट कर भाग गये तो भी उन्हें तब पता नहीं लगा । रिश्तेदारों की बात बाबाजी ने नहीं मानी ।
हमारी आत्मा की कर्मों ने ऐसी ही दशा की है।
भूखे, प्यासे बाबाजी को हाथ में चप्पणिया देकर भीख मांगते कर दिये। जिन्हें हम मान-सम्मान देते हैं वे विषय-कषाय ऐसे ही चोर हैं।
पिंजरे में पड़े हुए बाबाजी जैसे हमें देखकर क्या प्रभु को करुणा नहीं आती ? बिचारा चोरों से कैसा दब गया है ?
गुरु के माध्यम से प्रभु उसे अपना स्वरूप समझाना चाहते है । परन्तु समझे कौन ?
'भूख्या ने जिम घेवर देतां, हाथ न मांडे घेलोजी ।'
* छ: आवश्यकों में प्रथम मुख्य सामायिक है, क्योंकि यही साध्य है, परन्तु उसकी प्राप्ति चउविसत्थो आदि पांच से होती है, यह न भूलें ।
जो जो सम्बन्ध आपने दुनिया के साथ बांधे हैं वे समस्त सम्बन्ध अब आप भगवान के साथ जोड़ दें । भगवान के अतिरिक्त कुछ याद न आये, ऐसा वातावरण बनाएँ ।
प्रभु के प्रति प्रेम प्रकट हो यही बीजाधान है ।
हम शाब्दिक शरण लेते हैं, परन्तु मुझे ऐसा लगता है कि हृदय शून्य है । गौतम स्वामी को शरणागति इतनी प्रिय थी कि उसके लिए उन्हों ने केवल ज्ञान छोड़ दिया । छट्ठ के पारणे प्रभु की गोचरी का लाभ मिले न ? केवलज्ञान के पश्चात् गोचरी कौन जाने दै ? पांचवे आरे के जीवों को उन्हों ने मानो जीवन के द्वारा गुरु-भक्ति सिखाई है।
'मुक्ति से अधिक तुझ भक्ति मुझ मन बसी' - यह बात गौतम स्वामी में चरितार्थ थी । इसी कारण यशोविजयजी ने इस प्रकार गाया है और कहा है कि समग्र शास्त्रों का सार प्रभु-भक्ति है । भक्ति पदार्थ को सम्यग् समझने के लिए 'ललित विस्तरा' अवश्य पढ़ें । प्रभु के उपकार कितने असंख्य है और हम कैसे कृतघ्न है, यह ध्यान में आयेगा । प्रभु के गुण गाते ही दोष भाग
[९२ 0000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ३]