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श्रावकों के जीवन में द्रव्य से भक्ति बुनी हुई है । श्रावक जीवन के बदले में इन्द्र भी इन्द्रत्व देने के लिए तत्पर हैं ।
इन्द्र केवल आधा तन या थोड़ा सा मन ही देते हैं । आप तन-मन-धन सब दे सकते हैं - यह अन्तर है।
जब अनुपमा देवी इस सिद्धाचल पर संघ के साथ आई तब उनकी भोपला नामक दासी ने २१ लाख रूपये के आभूषण भगवान के चरणों में समर्पित कर दिये थे । प्रभु को समर्पित हुए बिना उनके गुण प्राप्त नहीं हो सकते ।
प्रभु के अनुग्रह के बिना एक भी गुण दान, शील, तप आदि नहीं मिल सकता । मिला है उसमें से प्रभु का भाग निकालते जाओ । वह भक्ति कहलायेगी ।
आधे घंटे तक जो कहा उसमें से मैं यदि बोलूंगा तो फिर लम्बा होगा, क्योंकि पूज्यश्री की भाषा सूत्रात्मक है।
माल पूज्यश्री का है । आप ग्राहक हैं । मैं बीच में दलाल हूं । मैं भी अछूता (कोरा) नहीं रहूंगा । पूज्यश्री के माल को देते समय जो उड़ा वह आपका, चिपक गया वह हमारा । अपना मानते हैं वह प्रभु को दो । तो ही साधना में बल आयेगा । द्रव्य-पूजा हो चुकी हो तो भाव-पूजा आये ।
संक्षेप में इतना ही पकड़ना है कि जो मिला है वह प्रभु की कृपा से ही मिला है। वह अब प्रभु को ही समर्पित करना है । समर्पण में नाम की कामना भी नहीं चाहिये । प्रभु-भक्ति के द्वारा शक्ति प्राप्त करके सच्ची शासन-प्रभावना कर सकते हैं ।
पूज्यश्री ने एक बाबाजी की बात कही वह सुनी है न ? __ भक्तगण अनेकवार गुरु को ठग कर जाते हैं, यदि गुरु सावधान न रहे । जहां भक्ति नहीं है वहां भीख है, भूख है, भय है ।
भक्ति से भोग्य और भोग प्रकट होते हैं, भीख एवं भूख चली जाती है । वह त्याग के रूप में आगे आती है ।
बारहखड़ी में भक्ति का 'भ' सीखना है । हमारी दृष्टि केवल प्रभु की ओर ही रहे वह सच्ची भक्ति है।
'त्वं मे माता पिता०' यह श्लोक प्रस्तुत करके पूज्यश्रीने कहा - 'प्रभु ! तू ही मेरा सर्वस्व है ।' (कहे कलापूर्णसूरि - ३ wwwwwwwwwww ९५)