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कर्तृत्व भाव के कारण हम अशुद्ध बनते हैं, प्रभु अशुद्ध नहीं बनते ।
मात्र बोलने के लिए नहीं, परन्तु हृदय से यह स्वीकार करना
पू. आचार्य भगवंत तो स्पष्ट कहते हैं : मैं क्या बोलूंगा ? भगवान मुझ से बुलवाते हैं । गाड़ी की क्या शक्ति? चलानेवाला ड्राइवर है ।
धर्म की स्खलनाएं अपनी, धर्म प्रभु का !
शुद्ध धर्म का प्रारम्भ कराने के लिए ही इस आयु में पूज्यश्री इतना परिश्रम उठाते हैं । आज पूज्यश्री की आवाज भारी थी, क्योंकि भगवान बोलते थे ।
गुरु भगवत्-रूप बनते है तभी गुरु बनते है । प्रभु उनके भीतर आये तो ही वे शुद्ध धर्म बता सकते हैं । अन्यथा 'अहो रूपम् अहो ध्वनिः' जैसी ताल होगी ।
गुरु-शिष्य दोनों परस्पर प्रशंसा करते रहते हैं ।
चित्त की प्रसन्नता प्रभु के प्रविष्ट होने का चिन्ह है । यही अनुभव कर्तृत्व-भाव हरता है ।
पूज्यश्री (आचार्यश्री विजयकलापूर्णसूरिजी) ने एक बार ज्ञानसार के शमाष्टक के सार स्वरूप कहा कि आत्मा ज्ञान स्वरूप है । उस ज्ञान के प्रकट होने पर उसकी परिपक्वता के रूप में आत्मा समतामय बनती है, क्योंकि आत्मा जैसी ज्ञान स्वरूप है, वैसी समता रूप है । दोनों गुण अभेद बनते हैं तब जीव सच्चिदानन्द स्वरूप में प्रकट होता है ।
- सुनन्दाबेन वोरा ।
कहे कलापूर्णसूरि - ३ 0000000000000000000 ७७)