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की कृपा के बिना नहीं मिलती ।
कवि धनपाल कहते हैं : 'जहां आपकी भक्ति प्राप्ति न हो, वैसी मुक्ति मुझे नहीं चाहिये ।'
यहां मुक्ति की उपेक्षा नहीं है, परन्तु भक्ति के प्रति दृढ़ विश्वास है । भक्ति होगी तो मुक्ति कहां जायेगी ?
गौतमस्वामी इसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं । उन्हों ने भक्ति के लिए केवल ज्ञान छोड़ दिया था । क्या आवश्यकता है केवल ज्ञान की ? भगवान का केवल ज्ञान मेरा ही केवल ज्ञान है । ऐसा उच्च समर्पण भाव उनका था । इसी लिए वे उच्च गुरु बन सके, स्वयं में नहीं होने पर भी सभी शिष्यों को केवलज्ञान दे सके ।
* भगवान की भक्ति होगी तो सभी गुण आ जायेंगे । ऐसा कोन सा पदार्थ है जो भक्ति से न मिले ? यह तो बताओ।
समस्त आत्मसम्पत्तियों का मूल जिन का अनुराग है । यह हो जाये तो काम हो जाये ।
अन्य पदार्थों की अपेक्षा विशेष अनुराग भगवान के प्रति हो गया है न ?
'सर्व-सम्पदां मूलं जायते जिनानुरागः ।' यह मेरा नहीं, सिद्धसेन दिवाकरसूरिजी का वाक्य है । __ भगवान केवल उपदेश नहीं देते, सब प्रकार की संभाल रखते
आपका कार्य है केवल रथ में बैठने का, शेष समस्त उत्तरदायित्व भगवान का है ।
चलेंगे घोडे (अश्व), चलायेगा सारथी । आपको केवल एक ही कार्य करना है - बैठने का ! क्या अधिक सरल प्रतीत नहीं होता ? सरल है फिर भी दुष्कर है, क्योंकि यहां पूर्ण समर्पणभाव होना चाहिये जो अत्यन्त ही दुष्कर है, कठिन है।
। भगवान के प्रति समर्पण-भाव रखना अर्थात् उनके रथ में बैठ जाना । भगवान अपने जीवन-रथ के सारथी बनेंगे । भगवान को कह दें :
'यावन्नाप्नोमि पदवी, परां त्वदनुभावजाम् ।
तावन्मयि शरण्यत्वं, मा मुञ्च शरणं श्रिते ॥' (८२0000 sooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)