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हंसने की बात नहीं है । आप सब सोचते हैं - महाराज दूसरों को कहते हैं, मुझे नहीं कहते । 'मुझे ही कहते हैं' ऐसा लगे तब ही परिवर्तन संभव होगा ।
छोटे थे तब माता को कितना कष्ट दिया था ? खेलने में इतने तल्लीन रहते कि भोजन करने जायें वे दूसरे । मां जबरजस्ती खींच कर लाती और भोजन कराती, वह याद है न ?
श्री हरिभद्रसूरिजी यहां माता बन कर आते हैं और कहते हैं, बालको ! समझो । बहुत खेले । अब महत्त्व का कार्य कर लो । इससे अधिक महत्त्व का अन्य कोई कार्य नहीं है। 'न चाऽतः परं कृत्यमस्ति ।'
* चैत्यवन्दन को, भक्ति को गौण करके ध्यान, काउस्सग्ग करके देखो और भक्ति को मुख्य मानकर ध्यान काउस्सग्ग करके देखो । दोनो में अन्तर होगा । भक्ति के बिना ध्यान काउस्सग्ग सफल नहीं हो सकता ।
ध्यान किस का करे ? काउस्सग्ग किसका करें ? लोगस्स (चउविसत्थो) में भक्ति ही है न ?
सम्यक् सामायिक भक्ति स्वरूप है। चारित्र सामायिक ध्यान स्वरूप है ।
गुरु, शास्त्र, भगवान या भगवान के उपदेश आदि के बिना सीधी ही सामायिक मिल जाती होती तो शेष पांच आवश्यक भगवान ने बताये ही नहीं होते । सामायिक प्राप्तव्य है, यह सही है, परन्तु वह मिलता है भगवान एवं गुरु की भक्ति के द्वारा ही ।
__ 'मुझे भक्ति के द्वारा ही मिला है । आपको भी उसके द्वारा ही मिलेगा ।' इस प्रकार भगवान स्वयं जीवन के द्वारा कहते है -
__ भगवान ने स्वयं पूर्व के तीसरे भव में भक्ति के द्वारा ही प्राप्त किया है ।
धूमधाम से अथवा भाषणबाजी से तीर्थ नहीं टिकता, सामायिक-भाव से टिकेगा ।
मोहराजा आपके बड़े ‘डांड़े' से नहीं डरेगा । आपके भीतर हुए शुद्धात्मा के संस्पर्श से वह डरेगा । यह सोंचे ।
[६६ 80 ooooooooooooo000 कहे कलापूर्णसूरि - ३)