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को वसति आदि के विचार नहीं करने चाहिये । मन पूर्णतः भगवान में लीन चाहिये ।
श्री हरिभद्रसूरिजी ने लिखा है : 'न च अतः परं कृत्यमस्ति ।' चैत्यवन्दन से बढ़कर अन्य कोई कार्य विश्व में नहीं है ।
गृहस्थों को प्रधानमंत्री का पद प्राप्त हो जाये तो कितने प्रसन्न हों। उससे भी अधिक आनन्द यहां होना चाहिये । सत्ता के सिंहासन पर बैठने के आनन्द की अपेक्षा भगवान के चरणों में बैठने का आनन्द बढ़कर है । इसीलिए भक्त चक्रवर्ती बनने की इच्छा नहीं करता, परन्तु वह भगवान का सेवक बनने की इच्छा करेगा । __ संसार की सेवा तो बहुत की, अब प्रभु की सेवा करनी
___अभी आणंदजी कल्याणजी पेढ़ी के समस्त कर्मचारी (पुजारी) आदि आये थे तब मैंने कहा था - 'किन्हीं बड़े सेठों को भी न मिले ऐसा महत्त्वपूर्ण कार्य (आजीविका चलाने का धंधा) आपको मिला है । अत्यन्त पुन्योदय मानकर ये प्रभु की पूजा आदि के कार्य करें ।
उन्हों ने उत्तर दिया : गुरुदेव ! अब हम ऐसा (हडताल करने का) कदापि नहीं करेंगे ।
* किसी भव में साथ न छोडें ऐसे मित्र, साथी, बन्धु अथवा रिश्तेदार भगवान के अतिरिक्त अन्य कोई है ?
अतः आनंदघनजी ने कहा है : 'ऋषभ जिनेश्वर प्रीतम माहरो रे, और न चाहूं रे कंत ।'
यहां चेतना ही अपने चेतन को कहती है, अब तो बस मेरे एक ही पति हैं, परमात्मा ! मुझे अब अन्य कोई कन्त नहीं चाहिये; क्योंकि इन परमात्मा का ही साथ ऐसा है जो कदापि छूटता नहीं
ऐसा प्रेम जगे तो भक्ति जगे बिना नहीं रहेगी।
सबका मूल प्रभु-प्रेम है। प्रीतियोग का विकास ही भक्तियोग है । उसका विकास वचन एवं उसका विकास असंग योग है । भक्ति, वचन और असंग में प्रेम नहीं है, ऐसा नहीं माने । क्रमशः प्रेम वहां बढ़ता ही जाता है ।
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