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थे फिर भी उन्हें ऐसे भाव आते थे ।
इसीलिए उन्हों ने लिखा - चैत्यवन्दन करते समय आंखों में से हर्ष के आंसु न आयें तो समझें कि अभी तक मेरी भक्ति अधूरी है । शोक, दीनता आदि के कारण अनेक बार आंसू गिर चुके हैं । क्या भक्ति के कारण कभी आंसू गिरे हैं ? यदि भगवान के प्रति अगाध प्रेम हो तो ही ऐसा संभव है।
हरिभद्रसूरिजी को दीक्षा ग्रहण नहीं करनी थी, फिर भी ले ली । गुरु ने योग्यता देखकर उन्हें दीक्षा प्रदान कर दी । फिर भी उन्हें प्रभु के प्रति अपूर्व प्रीति जगे और हम प्रभु-प्रेम से लाखों योजन दूर रहें, यह कैसा ?
* मन प्रसन्न न हो तो कृपा करके मन्दिर न जायें, अन्यथा गुरु के समक्ष चाहे जैसे बोल देते हो, उस प्रकार कभी भगवान के समक्ष भी बोल जाओगे ।
प्रसन्न चित्त के बिना प्रभु-भक्ति नहीं होती । साथ साथ यह भी समझ लें कि प्रभु की भक्ति के बिना चित्त की प्रसन्नता भी नहीं मिलेगी ।
प्रश्न यह उठता है कि चित्त प्रसन्न हो तो भक्ति हो सकती है या भक्ति करें तो चित्त प्रसन्न बनता है ?
दोनों परस्पर सापेक्ष हैं । सामान्यतः चित्त प्रसन्न हो तब ही प्रभु की भक्ति करने से चित्त विशेष प्रसन्न होता है। अत्यन्त कलुषित मन प्रभु-भक्ति में एकाकार नहीं बनता ।
गृहस्थों के लिए इसी लिए द्रव्य-पूजा आवश्यक हैं । अनेक आरम्भ-समारम्भों, धन्धे से चित्त व्यग्र बना हुआ हो, द्रव्य-पूजा करते-करते मन तनिक निर्मल बनता है। उसके बाद चैत्यवन्दन में मन लगता है । इसी कारण से आनंदघनजी ने नौवे स्तवन में द्रव्य-पूजा की बात की होगी न ?
चैत्यवन्दन करते समय स्वाध्याय बिगड़ता है, यह कदापि न मानें । स्वाध्याय के द्वारा आखिर यही करना है । समय बिगड़ता नहीं है, परन्तु सफल होता है, यह माने ।
चैत्यवन्दन करते समय अन्य समस्त कर्त्तव्यों का त्याग चाहिये । गृहस्थों को धंधे आदि के विचार नहीं करना चाहिये । साधुओं (कहे कलापूर्णसूरि - ३ mmmmmmmmmmmmmm ६३)