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जगत् ऐसा है । संसार में विघ्न आये तो कोई सहायता करने के लिए नहीं आता, परन्तु संयम में विघ्न डालने के लिए सब तैयार है।
अविधि से करो या विधिपूर्वक किये जाने वाले धर्मानुष्ठानों को आप रोको तो उसका प्रत्यपाय खतरनाक है ।
इसीलिए विधिपूर्वक सूत्र दें । अनधिकारी को न दें । 'मैं ने तो शुभ आशय से दिया था । उसने उल्टा किया तो उसमें मैं क्या करूं ?' यह कहकर आप छटक नहीं सकते । आपका भी उत्तरदायित्व है।
अधिकारी को देने से ही भगवान की आज्ञा की आराधना की हुई कही जायेगी, भगवान का बहुमान किया गिना जायेगा, लोक-संज्ञा छोड़ी कही जायेगी, धर्माचार का पालन किया गिना जायेगा ।
इसके अतिरिक्त हितकर मार्ग नहीं है ।
लोग करते हैं वैसे करें वह नहीं चलेगा । यह तो लोकसंज्ञा हुई । इससे मिथ्या परम्परा खड़ी होगी ।
चाहे जैसा व्यक्ति आपको कहे, 'आपके घर में निधान है' तो आप उसके कहने से खोदने नहीं लगोगे । परन्तु यदि आपके पिता अथवा दादा का मित्र हो, विश्वासु हो तो उसके कहने पर ही आप प्रयत्न करोगे ।
* अहमदाबाद में एक ने तनिक भूल की जिसका परिणाम यह आया कि साधु-साध्वीजी को सोसायटी में ठहरने का स्थान मिलना कठिन हो गया ।
पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. कहते : रोड़ पर बैठने की अपेक्षा (क्योंकि इससे शासनकी निंदा होती है, जो बड़ा पाप है ।) हरी वनस्पति पर बैठना श्रेष्ठ है, क्योंकि उससे शासन की निन्दा होती है, जो घोर पाप है।
* सवा सौ गाथों के स्तवन के अर्थों में पद्मविजयजी ने लिखा है कि जो आप्त पुरुष हैं, श्रद्धेय हैं, उनका प्रत्येक वचन आगम है। इसी अर्थ में हरिभद्रसूरिजी, यशोविजयजी जैसे आगमिक पुरुषों के वचन भी आगम ही हैं, परन्तु मेरे लिए (पू. कलापूर्णसूरिजी
(कहे कलापूर्णसूरि - ३Commonomosomomoooooo ४७)