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बाएं से पू. देवेन्द्रसूरिजी, पू. कनकसूरिजी आदि
२४-७-२०००, सोमवार
श्रा. कृष्णा -८
* 'संसार में थोडा सा ज्ञान प्राप्त कर के 'फूलणजी' बनने वाले हम जैसों की दशा क्या होती ? यदि ये जिनागम हमें नहीं मिले होते ?' ये उद्गार श्री हरिभद्रसूरिजी के हैं ।
हमारी बुद्धि कूप-मण्डूक जैसी है । कुंए का मैंढ़क कूदफुदक कर कहता है - क्या आपका समुद्र इससे भी बड़ा है ? असम्भव, हो ही नहीं सकता ।
हमारी ऐसी तुच्छ बुद्धि है, फिर भी आश्चर्य तो देखो । तुच्छ बुद्धि का भी अभिमान कितना ? यह अभिमान ही हमें जिनागम समझने नहीं देता । स्व-बुद्धि के अहंकार का परित्याग किये बिना जिनागम कदापि समझ में नहीं आते ।
* अध्यात्म-तत्त्व के गहन अभ्यासी आनंदघनजी ने भी नौवे भगवान के स्तवन में पूजा की विधि बताई है। जिसमें उल्लेख है कि सच्चा अध्यात्म-वेत्ता कदापि प्रभु-पूजा की उपेक्षा नहीं कर सकता । जो उपेक्षा करता है वह अध्यात्म-वेत्ता हो ही नहीं सकता ।
इस अध्यात्म का वर्णन ग्यारवे स्तवन में आया है, जिसमें लिखा है कि जहां अध्यात्म होता है वहां कामनाऐं समाप्त हो जाती हैं । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 66 6 6 6 6 6 6 6 6 ४९)