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शिष्य प्राप्त कर पाये न ?
गुरु के विनय से प्राप्त ज्ञान अभिमान उत्पन्न नहीं करता । जिस ज्ञान से अभिमान उत्पन्न हो, उसे ज्ञान कहा भी कैसे जाये ?
* 'ललित विस्तरा' ग्रन्थ की पात्रता के तीन गुण अवश्य याद रखें । यही उसकी नींव है। नींव में ये गुण न हों तो 'ललित विस्तरा' का श्रवण आपका उद्धार नहीं कर सकेगा ।
* संसार-रसिक जीव धर्म नहीं कर सकता । कदाचित् करे तो अपने भौतिक मनोरथ पूर्ण करने के लिए ही करेगा । भले ही वह शंखेश्वर जाये, महुडी जाये अथवा यहां आये, परन्तु उसके मन में संसार बैठा होगा । ऐसे जीवों को भवाभिनंदी कहा है । ऐसे जीव धर्म के लिए अपात्र हैं ।
जिसके कर्म क्षीण हो गये हों, जिसके हृदय में शुद्ध आशय हो, जिसका संसार के प्रति राग मन्द पड़ गया हो, वैसे जीव ही इसके श्रवण के लिए योग्य हैं ।
भारी कर्म किया हुआ, मलिन-आशयी, संसार-रसिक जीव तो इसके लिए सर्वथा अनधिकारी हैं ।
ऐसे अपात्र जीव भगवान की शुद्ध देशना सुन ही नहीं सकते । शुद्ध धर्मदेशना अर्थात् सिंहनाद ! उसे सुनते ही हिरनों के समान संसार-रसिक जीव तो कांप ही उठते हैं। ऐसे लोग विधि की बात सुनते ही चौंक पड़ते हैं, धर्म करना ही छोड़ देते हैं । ऐसे करना, ऐसे नहीं करना, ऐसे बोलना, ऐसे नहीं बोलना, ऐसे बैठना, ऐसे नहीं बैठना, ये फिर क्या है ? हमारा इसमें काम नहीं है ।
भवाभिनंदी को आप विधि समझाने बैठे तो ऊपर बताये अनुसार सोच कर जो करते हों वह धर्म भी छोड़ देगा ।
__ योग्य जीवों के पास योग्य पुस्तकें आदि या योग्य प्रवचन आदि मिलने पर नाच उठे । __. * ज्ञान भण्डार में जो पुस्तकें है वे निरर्थक नहीं है। उनके योग्य कोई न कोई जीव इस विश्व में हैं ही । योग्य समय पर वे आ ही पहुंचेगें । पुस्तकें स्वयं के योग्य पाठकों की प्रतीक्षा करती हुई भीतर बैठी हुई हैं। (५६0000000000 sooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)