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कषायों से भावना के द्वारा ही मुक्ति मिल सकेगी । मैत्री से क्रोध, प्रमोद से मान, करुणा से माया, माध्यस्थ से लोभ जीते जा सकते हैं । आप सोचेंगे तो बराबर समझ में आ जायेगा ।
जहां मैत्री होगी वहां क्रोध नहीं रह सकेगा, प्रमोद होगा वहां मान नहीं रह सकेगा, करुणा होगी वहां माया नहीं रह सकेगी और जहां माध्यस्थ भावना होगी वहां लोभ नहीं रह सकेगा ।
गत गुरुवार को वाचना में समस्त आचार्य भगवन् हमारे यहां आये तब मैत्री की बात निकली थी तब मैत्री के लिए शास्त्रों का आधार दिया था । जीवों के एक, दो, तीन इस तरह अक भेद हैं । एक भेद किस प्रकार ? उपयोग की अपेक्षा से ।
उपयोग सब में है । उपयोग की अपेक्षा से समस्त जीव एक हैं । जीवास्तिकाय के द्वारा भी एकता सिद्ध होगी । जीवास्तिकाय आदि समझ कर हम मैत्री आदि नहीं ला सकें तो सच्चा साधुत्व नहीं आ सकेगा ।
मैंने कहा था
सबसे पहला व्रत प्राणातिपात विरमण है । यह मैत्री का पूरक ही है । प्रश्न व्याकरण में अहिंसा के ६० पर्यायवाची शब्द हैं, जिनमें एक नाम 'शिवा' भी है । शिवा अर्थात् करुणा । यहीं तीर्थंकर की माता हैं ।
'अहं तित्थयरमाया सिवादेवी' यह शिवा देवी करुणा देवी है । यह नींव है । इस पर निर्मित साधना का भवन ही सुदृढ बनेगा |
अब अन्य पू. आचार्य भगवन् बोलेंगे । इनका आवाज बुलन्द है । सब सुन सकेंगे । सारा समय मैं ही ले लूं, यह उचित नहीं है । भले मेरे लिए आधा घंटा रखा हो, परन्तु मुझे सोचना चाहिये । पू. आचार्यश्री हेमचन्द्रसागरसूरिजी : साहेबजी ! हम ऐसे कंजूस नहीं हैं । आप अभी चालु रखें ।
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पूज्यश्री : जिस दिन किसी के साथ कुछ भी कटुता हुई हो, उस दिन साधना में मेरा मन नहीं लगता । हमें अपनी साधना भी बराबर करनी हो तो भी सबके साथ मैत्री जमानी पड़ेगी । कहे कलापूर्णसूरि ३
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